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संवेग कुलक- एक वैराग्य प्रेरक रचना
___ गणिवर्य श्री सुयशचंद्रविजयजी प्राणिमात्रने संसारमा रखडावनार कोई अनिष्ट तत्त्व होय तो ते मोह छे. एथी ज उपमितिभवप्रपंचा कथाना रचयिता सिद्धर्षि गणि महाराजाए कषायोमां मोहने राजानी उपमा आपी छे. काम, क्रोध, लोभ जेवा तेना अनुचरो जीवने एक अथवा बीजी रीते कर्मना बंधन करावी संसार-सागरमां डूबाडे छे. ते मोह राजवीन सौथी लोभामणुं शस्त्र होय तो ते काम छे, जेणे मोटा - मोटा योगीपुरुषोने पोतानी जाळमां लपेटी क्षणमात्रमा धूळ चाटता करी दीधा छे.
प्रस्तुत कृति मोह राजवीना ते शस्त्र पर विजय पामवा माटेनुं अमोघ शस्त्र छे जे-जे बाह्य अंगो पर जीव मोह पामे छे ते-ते अंगनुं अभ्यंतर-वास्तविक स्वरूप ज जीवना वैराग्यनुं प्रबळ कारण छे. कविए कुलकना प्रत्येक पद्यमां स्त्रीना जे-ते अंगोपांगनी वर्णनी साथे ते-ते अंगमां रहेली अशुचिनी वैराग्यप्रेरक वातो पण सरळ शब्दोमां रजू करी छे. कृतिकार कोण छे? कई संवतमां थया छे? तेनो काव्यमां कशो ज उल्लेख नथी, पण कृतिना भावो खरेखर अंत:करणमां वैराग्य उत्पन्न करे एवा छे. अहीं कृति अंगे विशेष न लखता अमे वाचकोना बोध माटे दरेक पद्यनी नीचे ज तेनो अनुवाद रजू को छे.
संपादनार्थे प्रस्तुत कृतिनी हस्तप्रत आपवा बदल पाटण हेमचंद्राचार्य जैन ज्ञानभंडारना व्यवस्थापकश्रीनो खूब खूब आभार.
संवेग कुलक
अबंभंमि अविरओ, पाएणं अरहा उ भावेइ। धी धी एसो मोहो, मोहिज्जइ जेण विउसो वि॥१॥
अब्रह्ममां तत्पर थयेलो सामान्य आत्मा प्रायः मोहना पाशमां आवी जाय छे. परंतु विद्वान अने पंडितजीव पण मोहनी जाळमां लपेटाई जाय छे. एवा मोहने धिक्कार हो.
चम्मट्टिाहारुबद्धं, नारीणं कलेवरं असुइपुन्नं । धी धी जीवसहावो, रंजिज्जई जत्थ मोहंधो ॥२॥
नारीनुं शरीर चामडा, हाडकां, स्नायु विगेरेथी बनेलं अने लोही, मांस, परू, मूत्र विगेरे गंदकीथी भरेलुं छे ते छतां पण मोहांध जीव तेमां ज आनंद पामे छे, रच्योपच्यो रहे छे. खरेखर ! जीवना आ स्वभावने धिक्कार हो.
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