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अनुभव बत्रीशी
आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी सद्गुरुपद पंकज नमी, पूज्य स्तुत्य हितकार; आत्मधर्म प्रगटाववा, मित्र महा अवतार.
॥१॥ स्वपर विवेचन वस्तुनु, आणी करो विवेक; उपादेय शुद्धात्मनो, खरो धर्म छे एक. जाण्यु आत्मस्वरूप तो, जाण्ये सर्व पदार्थ; आत्म तत्त्वना ज्ञानथी, अन्य नहीं परमार्थ. सूक्ष्मज्ञान जे आत्मनु, कापे कर्मानंत; जग जाणे तो शुं थयु. आवे नहीं भवांत. चरण करण तपजप सहु, आत्मबोध विण फोक; आत्मज्ञान परमार्थने, विरला समजे लोक; बाह्यज्ञानथी लोकमां, मानपूजा तो थाय; श्रोता वक्ता बाह्यना, बाह्यदृष्टिता पाय. पंचम गति दातार छे, सत्यज अनुभव ज्ञान; अंतर दृष्टि जागतां, होवे अनुभव भान. अंतर दृष्टि चेतना, त्यागे पुदगल संग; आत्मस्वरूपे रमणता, समता गंगतरंग, आत्मानुभव योगथी, झळके आतमज्योत; स्थिरोपयोगे ध्यानथी, अंतरमा उद्योत
आत्मयोगी जे सुख लहे, होय न ते सुख क्यांय; इन्द्रादिक पदवी लहे, तो पण दु:खनी छांय. जे पाम्या ते त्यां रम्या, भूल्या पुद्गल भान; सुख संगे रंगे रमे, प्राप्ति शिवकर स्थान. मन चंचलता त्यां मटे, दर्शन स्पर्शन योग; भोगी थई त्यां भोगवे, अनंत सुखनो भोग;
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