Book Title: Shrutsagar 2017 09 Volume 04 Issue 04
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 15
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्य श्रीजिनलब्धिसूरि विरचित सामायिक बत्तीस दूषणकथन सज्झाय मुनि मेहुलप्रभसागर कृति परिचय श्रावक धर्म के बारह व्रतों में पांच अणुव्रत होते हैं । अणुव्रत यानि छोटी प्रतिज्ञा । जिनके पालन से जीव मर्यादा में आता हैं। तीन गुणव्रत होते हैं । गुणव्रत यानि जो अणुव्रतों के पालन में सहायक-उपकारक हो । चार शिक्षाव्रत होते हैं । शिक्षाव्रत यानि जिनके द्वारा धर्म की शिक्षा - अभ्यास किया जाय । चार शिक्षाव्रतों में पहला सामायिक व्रत है। आवश्यक सूत्र की गाथा ८५४ की मलयगिरि वृत्ति में सामायिक शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार कही गई है समो रागद्वेषयोरपान्तरालवर्ती मध्यस्थः, इण् गतौ, अयनं अयो गमनमित्यर्थः, समस्य अयः समायः -समीभूतस्य सतो मोक्षाध्वनिप्रवृत्तिः, समाय एव सामायिकम् । राग-द्वेष में मध्यस्थ रहना 'सम' है। सम यानि माध्यस्थ - भावयुक्त साधक की मोक्षाभिमुखी प्रवृत्ति सामायिक है। कहा भी गया है 'सामाइयं नाम सावज्ज-जोग-परिवज्जणं, निरवज्ज-जोग - पडिसेवणं च ।' अर्थात् सावद्य योगों का त्याग करना और निरवद्य योगों में प्रवृत्ति करना उसका नाम ‘सामायिक’। वैसे तो श्रावक के सभी बारह व्रत अपने आप में उत्कृष्ट हैं, पर सामायिक व्रत का महत्त्व सबसे अधिक है। जब तक हृदय में समभाव न हो, राग- -द्वेष की परिणति कम न हो तब तक कितना ही उग्र तप कर लिया जाय, उससे आत्म-शुद्धि नहीं हो सकती। अहिंसा आदि ग्यारह व्रत इसी समभाव से जीवित रहते हैं। श्रावक प्रतिदिन दो घडी यानि ४८ मिनट तक हिंसा, असत्य आदि पापकारी प्रवृत्तियों का त्याग कर समभाव का अभ्यास करता है। For Private and Personal Use Only आवश्यक निर्युक्ति में सामायिक की विशद् विवेचना करते हुए बताया है कि सामायिक को विधि सहित ग्रहण करने पर श्रावक भी श्रमण के समान हो जाता है। अतः आध्यात्मिक उच्च दशा प्राप्त करने हेतु सामायिक को अधिक से अधिक करना चाहिए

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