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SHRUTSAGAR
20
January-2017
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सरधा अनुभव संमिलत, सुध व्यवहार विधान। अविकल ए तिहुंकाल में, शिवपद साधन जान या विण जग भूलौ फिरे, चौगति चाचरवीच । कलुषित काल अनादि को, राग द्वेष भ्रम कीच तीन लोक में संचरै, मोहराज परिवार । अहंकार ममकार फुनि, दोय सुभट दुर्वार इनके वश सब जग भया, नितु परभाव रमंत । सुपनै ही जाणें नहीं, निज घर को विरतंत समकित व्रत धारक सुगुण, कितेक उत्तम जीव । धर्म पक्ष के संचरै, आतम भाव सदीव
॥ उक्त: संक्षेपत: तत्त्वोपदेशः॥
अथ हितशिक्षा कथनम् चेतन चतुर विचार चित, मत धार मन अहंकार । है बहुतेरे जगत में, पुण्यवंत गुणधार अल्प बुद्धि बल विभव सुख, धारक तें इण वार। आगुं सब वाते अधिक, भए बहुत नर नार प्रबल अहं कृतियोग से, राज रिद्धि सब खोय । दुर्योधन रावण प्रमुख, गए नरकपुर जोय या शरीर पर वस्तु परि, अहं बुद्धि मत लाव। ते अमूर्त चिद्रूप है, यौ मूर्ती जड़ भाव तृष्णा वश धन मेलवे, न करत निज गुण चिंत। नयन जुगल मुद्रित भयां, को नही अपना मीत
चेत चेतन चित अंतरे, चेतन मत हुय बाल। ममता जाल म पाड मन, कर निज गुण संभाल मेरी मेरी क्या करे, तेरा को नहि आन । तन धन जोवन बंधु जन, सबही तें पर जान
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