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श्रुतसागर
जनवरी-२०१७ करके ये एक बार पुनः दशपुर आये और शेष जीवन भी उन्होंने कदाचित् वहीं व्यतीत किया। इस प्रकार दशपुर, आचार्य आर्यरक्षित सूरि की जन्मभूमि ही नहीं बल्कि कर्मभूमि भी रही।
द्वितीय शती ई. में जैनदर्शन और आचार के महान व्याख्याता, आचार्य समन्तभद्र ने अपने विहार द्वारा भी दशपुर को पवित्र किया था। उन्होंने स्वयं लिखा है काञ्ची में नग्न (दिगम्बर साधु के रूप में) विहार करता था और मेरा शरीर मल से मलिन रहा करता था। (बाद में भस्मक रोग को शान्त करने की इच्छा से) लाम्बुरा आकर मैंने शरीर में भस्म रमा ली और शैव साधु का वेश धारण कर लिया) पुण्डोण्ड्र में मैं बौद्ध भिक्षु के रूप में पहुँचा । दशपुर नगर मैं मैं परिव्राजक बन बैठा । और (वहाँ के भागवत मठ में) मिष्टान्न खाने लगा। वाराणसी पहुँचकर मैने चन्द्रकिरणों के समान उज्ज्वल भस्म रमाया और (शैव) साधु का रूप धारण कर लिया इतने पर भी मैं दिगम्बर जैनधर्म की वकालत करता हूँ। हे राजन, (शिवकोटि)! जिसकी हिम्मत हो वह मेरे सामने आये और शास्त्रार्थ कर ले। अपने मालव और विदिशा के विहार के कार्यक्रम में सम्भव है ये पुनः दशपुर आये हों। दशपुर में जैनधर्म का प्रचार मध्यकाल में भी अवश्य रहा होगा। पर उसके कोई उल्लेखनीय चित्र नहीं मिलते। १५वीं शताब्दी के मांडवगढ़ के मन्त्री संग्राम सोनी के द्वारा यहाँ जैन मन्दिर बनाने का उल्लेख प्राप्त है। “जैन तीर्थ सर्व संग्रह” ग्रन्थ के अनुसार सहाँ के खलचपुर के पार्श्वनाथ मन्दिर की दीवार में लगी हुई द्वारपालों की प्रतिमा गुप्तकालीन है और खानपुरा सदर में पद्मावती देवी की प्रतिमा भी प्राचीन है। अतः इस नगर में और उसके 1 अथार्यरक्षिताचार्याः मथुरां नगरा गताः। - आवश्यककथा श्लोक १७५। 2 अथान्यदा दशपुरं यान्तिस्म गुरवः क्रमात्। - आवश्यककथा श्लोक - १८६। 3 अपने शिष्य विन्ध्य की प्रार्थना पर इनके द्वारा किया गया अनुयोगों का विभाजन जैन साहित्य के
इतिहास में तीसरी आगमवाचना के रूप में प्रसिद्ध हुआ। 4 विस्तृत परिचय के लिए देखिए, मुख्तार आ. श्री जुगल किशोर । स्वामी समन्तभद्र 5 काञ्यां नग्नाटकोहं मलमलिनतनुर्लाम्बुशे पाण्डुपिण्डः
पुण्डोण्ड्रे शाक्यभिक्षुर्दशपुरनगरे मिष्टभोजी परिव्राट । वाराणस्तामभूवं शशधरधवलः पाण्डुराङ्गस्तपस्वी
राजन् यस्थास्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जैन निर्ग्रन्थवादी॥ - परम्पराप्राप्त श्लोक 6 पूर्वपाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताडिता पश्चान्मालव सिन्धु ठक्कविषये काञ्चीपुरे वैदिशे। विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितम् - श्रवणबेलगोला - शिलालेख, संख्या ५४।
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