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॥३०॥
SHRUTSAGAR
January-2017 आश्रव सकल निरोध के, सज संवर दृढ नाउ। आतम वीर्य उलासतें, पार भवोदधि पाउ वाचक अमृत धर्म गणि, सीस क्षमा कल्याण । पाठक बत्तीसी कहै, हित शिक्षा अभिधान
॥३१॥ निज परहित हेतें रची, बत्तीसी सखकंद। जाकै चिंतन से अधिक, प्रगटै ज्ञानानंद
॥३२॥ सवैया पूरण ब्रह्म स्वरूप अनुपम, लोकत्रयी विच पाप निकंदन। सुंदर रूप सुमंदिर मोहन, सोवन वान शरीर अनिंदन । श्री जिनराज सदा सुख साज, सुभूपति रूप सिद्धारथ नंदन । शुद्ध निरंजन देव पिछान, करत क्षमादि कल्याण सुचंदन
॥३३॥ ॥ इति द्वात्रिंशिकाया अंतमंगलम् ॥
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उदयति यदि भानुः पश्चिमायां दिशायां, विकसति यदि पद्मः पर्वताग्रे शिलायां । प्रचलति यदि मेरुः शीततां याति वह्निः, तदपि न चलंतीयं भाविनी कर्मरेखा ॥
(कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर प्रत नं-४२४५९) यदि सूर्य पश्चिम दिशा में उदित हों, यदि पर्वत की शिलाओं पर कमल विकसित होते हों, यदि मेरुपर्वत के शीतल पवन अग्नि प्रज्वलित करते हों, तब भी कर्म की रेखा अर्थात् भावी मिट नहीं सकती है.
षट्पद पद्ममध्यस्थः यथा सारं समुद्धरेत्। तथा सर्वेषु शास्त्रेषु सारं गृह्णाति बुद्धिमान् ॥
(कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर प्रत नं-४०३८९) भ्रमर जिस प्रकार कमल के मध्य में स्थित सार (पराग) को ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार बुद्धिमान पुरुष सभी शास्त्रों में से सारतत्त्व को ग्रहण कर लेते हैं.
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