________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
21
जनवरी-२०१७
॥१७॥
॥१८॥
॥१९॥
॥२०॥
॥२१॥
॥२२॥
श्रुतसागर
पंचेंद्रिय के विषय मझ, लपट रह्यां बहु काल । ए सब फल किंपाक सम, तै दुख हेतु निहाल कुचगिरि जोगे अति विषम, तरूणी तनु कंतार । मत संचर मन पांथ तहिं, काम चोर दुर्वार इंद्र चंद्र नागेन्द्र सब, इन लुटै इह चोर । इहां किनहि बलवंत का, चले न कछु भी जोर रमणी तनु रमणीकता, देख देख मत भूल।
अतिहि अशुचि भंडार यह, फुन सब दुख को मूल तरूणी चिंतन मात्र से, हरै देह को सार। नारी मारी सम कही, ताकौ संग निवार महा मोह निद्रा मगन, तैं सोया बहु काल । जाग जाग अब खोल दृग, छोड़ सकल जंजाल निज विवेक मंत्री विमल, ताकौ कर संयोग । भज निजभावै रमणता, परिहर पुद्गल भोग नाहं नो मम कोपि इह, याहि बुद्धि सुविशुद्ध । मोह निकंदन कारणे, धर जिउमें अविरुद्ध शुद्ध देव गुरु धर्म की, कर निर्मल पहिचान । कुगुरु कुदेव कुधर्म कुं, तज दुखदायक जान चेतन! श्री जिनवचन को, कर निर्मल श्रद्धान।
और सकल मतिवाद कुं, मिथ्या रूप हि जान मिथ्या मति के जोर से, पायौं दु:ख अनंत । अब समकित के संग से, पाऊं परम सुख संत अनुभव जाको मीत है, सब संवर को हेत । सो समकित आरोपते, उत्तम आतम खेत सुर नर सुख जाकै सुमन, शिव सुख फल पहिचान । अव्याबाध अनंत थिति, हेतु सेव सुविहान
॥२३॥
॥२४॥
॥२५॥
॥२६॥
॥२७॥
॥२८॥
॥२९॥
For Private and Personal Use Only