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आर्ष प्राकृत एक समीक्षा
प्रियंका मयुर शाह जैसा कि हम जानते हैं गुजरात के इतिहास में सिद्धराज जयसिंह और उनके वंश का शासनकाल सुवर्णयुग माना जाता है। यह कथन इस बात से चरितार्थ है कि उनके शासनकाल में कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरि और उनके शिष्य रामचन्द्र प्रभृति विद्वानों ने अपनी बौद्धिक क्षमता का भरपूर उपयोग करके साहित्य के विविध क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। हेमचन्द्राचार्य का प्राकृत व्याकरण उनके सिद्धहेम शब्दानुशासन का वह अंग है जो अब तक लिखे गए सभी प्राकृत व्याकरणों में सर्वाधिक लोकप्रिय है। प्राकृत व्याकरण में हेमचन्द्र ने सबसे पहले प्राकृत भाषा के व्याकरण को अपने ही संस्कृत भाषा के व्याकरण पर आधारित माना इसलिए उन्होंने कहा- प्रकृतिः संस्कृतम् । तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम्।
इसके बाद उन्होंने बताया की प्राकृत में प्रयक्तु वर्णमाला, संधि, समास, कारक, विभक्ति इत्यादि का प्रयोग संस्कृत के अनुसार ही माना जाए। प्राकृत में प्रयुक्त तत्सम, तद्भव और देश्य शब्दों में से उन्होंने केवल तद्भव शब्दों का ही अनुशासन किया (नियम बनाए) तत्सम शब्दों के लिए तो उन्होंने कहा कि उन्हें संस्कृत के अनुसार समझ लिया जाए और देश्य शब्दों के लिए कोई विद्वत् सिद्धांत लागु नहीं पडता इसलिए उन्हें यथा स्वरूप कर लिया जाए। ___प्राकृत भाषा में प्रयोग बहुलता को ध्यान में रखते हुए सूत्र का विधान किया जिसमें सामान्य नियमों की मर्यादा बताई गई, मर्यादा बताने में चार प्रकार दिए गए
१. क्वचित् प्रवृत्ति- अर्थात् कहीं कोई नियम लागु नहीं पड़ रहा हो तो वहाँ वह नियम लागु पडने लगेगा.
२. क्वचित् अप्रवृत्ति- कहीं कोई नियम लागु पड रहा हो और अवसर हो वहाँ वह नियम लागु नहीं पडेगा.
३. क्वचित विभाषा- कहीं कोई नियम नित्य हो तो वहाँ वह विकल्प से हो
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