________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
24
SHRUTSAGAR
July-2016 क - सुकुसुमं – सुकुसुमं। ग - प्रयाग जलं – पयाग जलं, शुगतः - सुगओ, अगुरू: – अगुरु । च - सचारम् – सुचावं। ज - व्यंजनम् - विजणं। त - सुतारम् – सुतारं । द - विदुरः – विदुरो। प - सपापम् – सपावं। व – समवायः समवाओ। दैवः – देवो।
अर्थात् शब्द के द्वारा आचार्यजी कहते हैं की जिस शब्द में कगच...आदि का लोप करनेवाला अर्थ स्पष्ट रूप में समझ में न आए अथवा अर्थ के विषय में भ्रमणा उपस्थित हो तो उस शब्द को विशेष नामरूप मानकर उस शब्द के कगच आदि का लोप न किया जाए ___ आर्ष प्राकृत में इन परिवर्तनों के लिए यह भी स्पष्टता की गई है कि ये शब्द की आदि में नहीं होने चाहिएँ और हलन्त भी नहीं होने चाहिएँ। जब शब्द की आदि में हों तो यह परिवर्तन नहीं होता परंतु वैकल्पिक रूप से कुछ शब्दों की आदि में भी ये परिवर्तन पाए जाते हैं
प - स पुनः – स उण । च – स च – सो अं। चिन्हम् – इंधं किसी किसी स्थान पर 'च' का 'ज' होता है, पैशाची – पिसाजी
क का ग होता है, एकत्वम् – एगतं, एकः – एगो, अमुकः – अमुगो, असुकः - असुगो।
श्रावकः – सावगो, आकारः – आगारो, आकर्षः – आगरिओ, लोकस्य उध्योतकराः – लोगस्स उज्जोअगरे
इस प्रकार के परिवर्तन को व्यत्यय भी कहा जाता है परंतु आर्ष प्राकृत की यह विशिष्टता है कि इस प्राकृत के परिवर्तन अनिश्चत रूप से होते हैं और अनिश्चित वर्णादेश भी प्राप्त होते हैं जो अर्थ स्पष्टता के विशेष द्योतक होते हैं जैसे- आकुञ्चनम् – आउण्टणं इस प्रकार य के स्थान पर ट की प्राप्ति होती है, यह आर्ष प्राकृत की विशेषता है जो अन्य आर्ष शब्दों में भी विविध रूप से मिलती है। ये परिवर्तन आर्ष में ही मिलते हैं ऐसा नहीं बल्कि ये परिवर्तन और प्राकृतों में भी पाए जाते हैं।
For Private and Personal Use Only