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SHRUTSAGAR
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July-2016 जाता है.
४. क्वचित अन्यदेव- कहीं कोई नियम बिलकुल भिन्न रूप से लागु पडने लगता है.
हेमचन्द्राचार्य आगे लिखते हैं कि आर्ष प्राकृत में बहुल सूत्र के चारों विकल्प लागु पडते हैं। उन्होंने आर्ष शब्द की व्युत्पत्ति बताइ है- ऋषिणां इदं आर्षम्।
प्रश्न यह होता है कि उन्होंने आर्ष प्राकृत किसे कहा है मनीषिओं ने श्री हेमचन्द्राचार्य के आर्ष प्राकृत को अर्धमागधी माना, हेमचन्द्राचार्य को भी यही अभीष्ठ था।
पाणिनी ने भी अपनी अष्टाध्यायी में वैदिक व्याकरण का संपूर्ण व्याकरण नहीं लिखा । लौकिक संस्कृत के संपूर्ण लक्षण वैदिक भाषा में लागु नहीं हो रहे इसलिए उन्होंने वेद के प्रयोगों को लाक्षणिक बनाने के लिए 'बहुलम् छंदसि' नामक सूत्र की रचना की। इस सूत्र का प्रयोग उन्होंने छः-सात बार किया जिन जिन प्रयोगों में इसकी आवश्यकता लगी उन्होंने जो बताया वह इस प्रकार है
क्वचित् प्रवृतिः क्वचिदप्रवृतिः क्वचिद् विभाषा क्वचिदन्यदेव । विधेर्विधानं बहुधा समीक्ष्य चतुर्विधं बाहुलकं वदन्ति ॥
हेमचंद्राचार्य ने अपने सात अध्याय के संस्कृत व्याकरण में कहीं पर भी आर्ष के लक्षण नहीं बताए क्योंकि उन्होंने प्रशिष्ट संस्कृत में आर्ष की संभावना नहीं देखी.
जैसे कि हम जानते हैं अर्धमागधी आगम साहित्य जैन संप्रदाय का ज्ञान है। सभी तीर्थंकर उसी सिद्धांत का प्रणयन करते हैं। परंपरा से यही ज्ञान विविध रूप में और विविध भाषा में चलता रहता है। अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी ने उस ज्ञानकुंज को अर्धमागधी भाषा मे प्रस्तुत किया जो मगध देश की लोकभाषा थी। मगध के आस पास के क्षेत्रों में विहार करने के कारण उनकी भाषा अर्धमागधी कहलाई। श्वेतांबर आगम साहित्य जैनों के लिए बड़ा महत्त्व रखता है, जो वैदिक परंपरा के लिए वेदों का है।
संभवतः उसी महत्त्व को बताने के लिए हेमचन्द्राचार्य ने अर्धमागधी भाषा
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