Book Title: Shrutsagar 2014 10 Volume 01 05 Author(s): Kanubhai L Shah Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba View full book textPage 7
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org गुरुवाणी Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्य पद्मसागरसूरि वाक्-संयम 'सारस श्रुतौ द्रोहिणी' आँख से कभी अच्छा देखा नहीं, कान से कभी धर्म कथा सुनी नहीं। सियार विचार में पड गया। कहा कि भगवान फिर क्या करूँ । इसके हाथ खा लूँ। आपने मना कर दिया तो मुझे चुप रहना पडता है। 'हस्तौ दानविवर्जितौ' इसने जीवन में हाथ से कभी दान किया ही नहीं । जगत को लूटने में ही इसका प्रयोग किया। अर्पण में कभी इसका उपयोग नहीं किया। केवल दुरुपयोग किया है। इसलिए भूलकर भी इसके हाथ का भक्षण मत करना, वरना तेरी रही-सही भी चली जाएगी। भवान्तर में इससे भी भयंकर योनि में तुझे जन्म लेना पड़ेगा । जो हाथ सेवा के लिए कुदरत ने दिया, जिस हाथ से परमात्मा या साधुओं, मुनिजनों की भक्ति करनी चाहिए। जो हाथ दीन-दुखियों की सेवा के लिए मिला है, उसका उपयोग आज तक हमने किसके लिए किया? कोई साधन बुरा नहीं होता, साधन का उपयोग बुरा या भला होता है। चाकू कितने व्यक्तियों को जीवन दान देता है, न जाने कितने व्यक्तियों का प्राण लेता है। चाकू निरपेक्ष है, निर्दोष है, उसका उपयोग यदि विवेक पूर्वक किया तो लाभ के लिए है। विवेक शून्य होकर यदि उपयोग करें तो हानिकारक है। ये सारी इन्द्रियाँ मोक्ष प्राप्ति में सहायक बनती हैं। सारी इन्द्रियाँ कर्म क्षेत्र में सहयोग देने वाली बनती हैं। परन्तु यदि दुरुपयोग किया जाए तो दुःख को आमन्त्रित करती हैं। हाथ का उपयोग कभी हमने इस प्रकार किया ही नहीं । सेवा के लिए इसका उपयोग हमसे कभी न हो पाया । 'हस्तौ दानविवर्जितौ' For Private and Personal Use Only व्यक्तियों की आदत है जगत् को प्राप्त करना । हमें प्राप्ति में आनन्द का अनुभव होता है, अर्पण में जरा भी आनन्द नहीं आता है। लोग क्षणिक प्राप्ति के अन्दर बड़ी शान्ति का अनुभव करते हैं । परन्तु वह शान्ति स्थायी नहीं रहती, अस्थायी होती है। न जाने इस प्राप्ति के लिए कितना भयंकर पाप करना पड़ता है। जगत् को प्राप्त करने के लिए न जाने कितने अनाचार का सेवन करना पड़ता है। कितना घोर दुरुपयोग हम करते हैं, इस हाथ का अपनी लेखनी के द्वारा । असत्य का प्रयोग करकेPage Navigation
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