Book Title: Shrutsagar 2014 07 Volume 01 01
Author(s): Kanubhai L Shah
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 12
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 10 SHRUTSAGAR JUNE - 2014 ३.आसक्ति रहित जीवन व्यवहार का अभ्यासः राग द्वेष आदि विकारी भावों को हटाना, ममत्व व तृष्णा में कमी तथा पंचेन्द्रिय संयम।। ४. आत्म साधना हेतु सांसारिकता का त्याग एवं कठोर तपस्चर्या का आचरण आध्यात्मिक किस अवस्था तक पहुँचने के लिए किन गुणों का होना जरूरी है। जो गुण सहित है वही गुणी है। गुण सहित होने की प्रतीति दो रूपों में होती है- द्रव्याचरण और भावाचरण। द्रव्याचरण से हमारा आशय लौकिक व्यवहार या क्रियाओं से है तथा भावाचरण का आन्तरिक विशुद्धता से है जिसकी आत्मिक विकास में अहम् भूमिका होती है। देश, कर्मकाण्डीय प्रथाएं आदि लौकिक नैतिकता का प्रतिनिधित्व करती हैं इससे ऊपर की अवस्थाओं में आरोहण हेतु दृढ़ भाव की विशुद्धि की अनिवार्यता बढ़ जाती है। आत्म विशुद्धि की यात्रा में विकारी परिणामों पर जय पाने हेतु उपशम व क्षय दो महत्त्वपूर्ण विधियाँ हैं | उपशम विधि के तहत विकारी भावों का बढ़ना तो रूकता है किन्तु उसका प्रभाव अल्पकालिक रहता है। क्योंकि इस विधि को अपनाने में इन भावों को रोकने की दृढ़ता व आत्मविश्वास का स्तर व्यक्ति में निम्न पाया जाता है। समय के साथ इसकी पकड़ ढीली पड़ते ही विकारी भावों का प्रभुत्व पुनः बढ़ जाता है तथा इसी के चलते वर्तमान अवस्था से पतनोन्मुख हो जाता है। इसके विपरीत आध्यात्मिक उत्थान की अन्य विधि क्षय है जिसमें व्यक्ति का अपने संकल्पों के प्रति आत्मविश्वास व दृढ़ता का स्तर प्रबल पाया जाता है और वह अपनी अर्जित गुण ग्रहण स्थिति से पतित नहीं होता विकास पथ में उसके कदम डगमगाते नहीं हैं। वर्ण व्यवस्था में मानव जीवन की उत्कृष्ट आयु सौ वर्ष मानते हुए प्रत्येक आश्रम का काल पच्चीस वर्ष माना गया है। यहाँ क्रमानुसार व्यक्ति अगले आश्रम में प्रवेश करता चला जाता है। यही नैतिक विकास यात्रा के आधार स्तंभ हैं। वर्ण व्यवस्था के चार आश्रम और गुणस्थान की स्थितयों का विश्लेषण इस प्रकार समजा जा सकता है For Private and Personal Use Only

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