Book Title: Shrenika Charitra
Author(s): Shubhachandra Acharya, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 10
________________ पट्टे तस्य गुणांवुधिर्व्रतधरो धीमान् गरीयान् वरः । श्रीमछ्री शुभचन्द्र एषविदितो वादीभसिंहो महान् ॥ चाकारि चंचदुचा । तेनेदं चरितं विचार सुकरं पाण्डोः श्री शुभसिद्धि सात जनकं सिद्धयै स्तुतानां सदा ।। ७१ ।। मूल संघ में मुनि पद्मनन्दी हुए और उन्हीं के पट्ट पर अनेक मुनियों के वाद सकलकीर्ति मुनि हुए । भट्टारक सकलकीर्ति ने मर्त्यलोक में शास्त्र के अभिप्राय को भले प्रकार विवेचन करने वाली समस्त कीर्ति का प्रसार किया ।। ६७ ।। भट्टारक सकलकीर्ति के पट्ट पर भट्टारक भुवनकीर्ति हुए । भट्टारक भुवनकीर्ति समस्त लोक को आश्चर्यचकित करनेवाले थे, संसार के स्वरूप प्रकाश करने में चतुरमति थे, उत्कृष्ट तपस्वी थे, संसार भयरूपी सर्प के लिए गरुड़ एवं पृथ्वी के समान क्षमाशील थे । ६८ ॥ आत्मस्वरूप के ज्ञाता चतुर निरंतनचन्द्र आदि से पूजित चरण-कमलों से युक्त आचार्य श्री ज्ञानभूषण कीर्ति-प्रसार करनेवाली चरित्र-शद्धि हमें प्रदान करें ॥ ६६ ॥ अन्य मनुष्यों के चित्तों को जीतने एवं नम्रीभूत करनेवाले बौद्धों से स्तुत पवित्र आत्मा के धारक बुद्धिमान अनेक राजाओं से पूजित एवं प्रभु भट्टारक विजयकीर्ति जैन मत की रक्षा करें एवं संसार से आप लोगों को बचायें ॥ ७० ॥ भट्टारक विजयकीर्ति के पट्ट पर गुणों का समुद्र, व्रती, बुद्धिमान, अतिशय गुरु, उत्कृष्ट, प्रसिद्ध, वादी रूपी हस्तियों के लिए सिंह एवं महान् श्री शुभचन्द्राचार्य हुए। तेजस्वी श्री शुभचन्द्र ने यह सरल सदा भव्यों को सिद्धि प्रदान करनेवाला पाण्डव पुराण रचा ।। ७१ ।। इस प्रकार उक्त तीन प्रमाणों से यह बात निर्विवाद सिद्ध हो चुकी कि भट्टारक शुभचन्द्र आचार्य मूल संघ के भट्टारक हुए हैं और वे विजयकीर्ति के शिष्य और भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य के आम्नाय में हुए हैं। शुभचन्द्राचार्य की प्रशस्तियों में जगह-जगह शाकवाटपुर के उल्लेख से यह बात जानी जाती है कि शुभचन्द्राचार्य सागवाड़ा की गद्दी के भट्टारक थे। यह गद्दी सकलकीर्ति के बाद ईडर गद्दी से जुदी हुई है और तब से उसके जुदे-जुदे भट्टारक होते आये हैं । पाण्डव पुराण की प्रशस्ति में Jain Education International श्रीमद्विक्रमभूपतेद्विक हते स्पष्टाष्ट संख्ये शते रम्येऽष्टाधिक वत्सरे सुखकरे भाद्रे द्वितीया तिथौ श्रीमद्वाग्वर निर्वृतीदमतुले श्री शाकवाटे पुरे श्रीमछ्री पुरुषाभिधे विरचितं स्थेयात्पुराणंचिरम् ।। ८६ ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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