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श्रमणविद्या
- योग की प्रामाणिकता में चार्वाक और मीमांसकों को छोड़कर किसी भी भारतीय दार्शनिक परम्परा में विवाद नहीं रहा है। यह स्पष्ट है कि योग में भी विश्वासलब्ध तत्त्वों की भावना के लिए पर्याप्त अवकाश है। इसके आधार पर परस्पर मतभेद भी रहा है, किन्तु अहिंसा की स्थिति उनसे भिन्न है। मतभेद रखते हुए भी सभी एकमत से अहिंसा की उपयोगिता को स्वीकार करते हैं । परिभाषा और विश्लेषण में भी प्रायः सभी समान हैं। अहिंसा की गणना बौद्धों के अनुसार 'शील' में, वैदिकों के अनुसार 'यम' में जैनों के अनुसार 'अणुव्रतों' में की गई है, जो वास्तव में प्रधान रूप से योग नहीं, योगाङ्ग हैं। यह अन्य नैतिक एवं व्यावहारिक दुर्गणों-चोरी, असत्य, सुरापान आदि की विरतियों के साथ पठित है। इस प्रकार अहिंसा को अतयं तत्त्व नहीं माना गया है। यही कारण है कि बहुत प्राचीनकाल में ही प्रयोग की दृष्टि से अहिंसा के क्षेत्र को बहुत व्यापक समझा जाने लगा था। उसे बौद्धों ने 'अप्रमाण' जैनों ने 'महाव्रत' तथा पातञ्जलों ने ‘सार्वभौम महाव्रत' की संज्ञा दी है। इस प्रकार प्राचीनकाल में ही अहिंसा के निरपवाद नियम होने की क्षमता आकलित कर ली गयी थी। पतञ्जलि यह स्वीकार करते हैं कि अहिंसा जाति, देश और काल की सीमाओं से बँधी हुई नहीं है
"जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् ।” २॥३१
पुराने यज्ञवादियों ने तथा उनके पोषक मीमांसकों ने अहिंसा को सीमित करने का विपुल प्रयास किया है। उसमें उनको आंशिक सफलता भी मिली है। योगियों ने भी लोक व्यवहार में विविध विवशताओं के कारण अपने ढग से अहिंसा की सीमा मानी है, किन्तु धार्मिक आधार पर नहीं । यहाँ तक कि वैदिक योगियों ने भी अहिंसा के समक्ष हिंसक यज्ञादि की श्रेष्ठता को कभी स्वीकार नहीं किया । योगियों के प्रभाव से मनु आदि धर्मशास्त्रकारों तक को यज्ञ के एक श्रेष्ठ विकल्प के रूप में अहिंसा को स्वीकार करना पड़ा। मनु किसी एकदेशी आचार्य का मत बताते हैं कि वे लोग यज्ञशास्त्रवेत्ता हैं, किन्तु उसका अनुष्ठान न करके सदा विषयों का होम इन्द्रियों में करते हैं
"एतानेके महायज्ञान यज्ञशास्त्रविदो जनाः ।
अनीहमानाः सततं इन्द्रियेष्वेव जुह्वति ॥" (म. ४।२२) मनु स्वयं भी कहते हैं कि सभी श्रेयस्कर एवं अनुशासन पूर्ण कार्य अहिंसा से ही सम्पन्न हो सकते हैं
"अहिंसयैव भूतानां कार्य श्रेयोऽनुशासनम् ।" (म. २।१५९)
उक्त तथ्यों के आधार पर अहिंसा की मान्यता के संबन्ध में सभी भारतीय विचारकों का जो ऐकमत्य मालूम होता है, वह इतिहास के अनेक घात-प्रतिघातों संकाय पत्रिका-१
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