Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 4
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 17
________________ श्या० ५० टीका-हिन्दीविवेचन ] वार्तान्तरमाहमूलम्-मन्यन्तेऽन्ये जगत्सर्व क्लेशकर्मनियन्धनम् । क्षणक्षयि महामाज्ञा ज्ञानमात्रं तथा परे ॥१॥ . जिस की प्रवचनभूमि सिंहासन का अधःकक्ष समवसरण में, सिंह की गोद में मग निभय होकर छठ पाता है, सो का शत्रु याने गरुड या मयूर से सर्यों का प्रातङ्क-मय समाप्त हो जाता है, देवता पौर दानव एकदूसरे के प्रति नि:श-आक्रमण को शङ्का से रहित हो जाते हैं और नरपति अहंकार एवं परस्पर द्वेष से मुक्त हो जाते हैं, और जिस को व्याख्याभू समवसरण में स्थित प्राणियों में परस्पर में इर्ष्या और शत्रुता होने की किचित् मात्र शङ्का मी शालु के लिये पावह प्रर्थात् पाप जनक होती है, क्योंकि भगवान के सानिध्य में उन में इन बातों की किश्चित्मात्र सम्मायना ही नहीं होती, तीनों लोग के अलङ्काररूप ऐसे भगवान श्री महावीरस्वामी को हम उपासना करते हैं। इस श्लोक में मडुलकर्ता ने भगवान् महावीरस्वामी को तीनों लोक का प्रलङ्कार कहा है। प्रलजार का अर्थ होता है-भूषित करने वाला, शोभा बढ़ाने वाला आभूषण शोभा को वद्धि इसी वस्त से होती है जो प्रलंकरणोय वस्तु को नितान्त निर्मलरूप में प्रस्तुत कर सके जिस को प्रामा से प्रलंकरणीय वस्तु का दोष पूर्णतया अभिभूत या समाप्त हो जाय । त्रिभवन पर भगवान महावीर का ऐसा ही प्रमाव है । उन के सम्पर्क से चाहे प्रत्यक्ष या परोक्ष सारा त्रिभुवन अलंकृत हो उठता है, क्यों कि भगवान के प्रभाव से राग, द्वेष, भय, प्रातङ्क, शङ्का, अहंकारावि त्रिभुवन के सम्पूर्ण मल शिथिल हो जाते हैं और समाप्त हो जाते हैं । भगवान महावीर को श्रीमान् भो कहा गया है, 'श्री' का अर्थ होता है सौंदर्य और सौंदर्य का प्राश्रय यही वस्तु होती है जिस से किसी प्रकार का उद्वेग न हो, उद्धेगकारि वस्तु कभी भी सुन्दर नहीं कही जाती । भगवान को श्रीमान् कहकर उन को इसी अनुवेजकता की-पानी परखेदकर्तृत्व के प्रभाव की सूचना दी गई है। भगवान को 'जिन' भी कहा गया है। 'जिन' का अर्थ होता है विजेता, विजेता का गौरव उसो पुरुष को मिलता है जो सब से बड़े शत्रु पर विजय प्राप्त करता है । जीवमात्र का सबसे बडा शत्र होता है उस का मोह । मोह का अर्थ है मिथ्याष्टि, इस दृष्टि से ही मनुष्य पतित और पराजित होता है। इस महा शत्र मोह पर विजय प्राप्त करने के कारण ही भगवान को जिन कहा गया है। भगवान के सम्बन्ध की यही विशेषताओं को श्लोक के पूरे भाग में परिपुष्ट किया गया है और यह बताया गया है कि जिस भूमि में भगवान का उपवेश प्रवाहित होता है एवं जिस भूमि में भगवान के गुणों और महिमा की पवित्र चर्चा होती है उस भूमि में इा-शत्रुता आदि पूर्णरूप से तिरोहित हो जाते हैं। उस को किंचित् मात्र मो सम्भावना नहीं रहती। प्राणियों के हृदय में एक दूसरे से भय की भावना नहीं रहती है, मग सिंह का वध्य है वह भी सिंहों के बीच भयमुक्त होकर विचरण करने लगता है, सर्प मयूर के भक्ष्य होते हैं किन्तु उन्हें उक्तभूमि में मयूर से कोई प्रातङ्क नहीं होता है । देव और दंत्य जन्म से ही दूसरे के प्रति शत्रुता रखते हैं, एक दूसरे से स्वभावतः सशङ्क रहते हैं, सेकिन भगवान से प्रभावित भूमि में वे भी परस्पर निःशङ्क हो जाते हैं। राजामों का प्रहंकार भी चूर्ण हो जाता है। उनके मन में परस्पर प्रतिस्पर्धा की भावना नहीं रह जाती जिस से वे विश्वबन्धुता, मित्रता और एकात्मकता के भाव से भर जाते हैं ।

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