Book Title: Shashvat Tirthdham Sammedshikhar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 6
________________ शाश्वत तीर्थधाम सम्मेदशिखर एस सुरासुरमणुसिंद वंदिदं धोदघाइ कम्ममलं। पणमामि वड्ढमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारम् ॥१॥ (हरिगीत ) सुर-असुर-इन्द्र-नरेन्द्र-वंदित कर्ममल निर्मलकरन। वृषतीर्थ के करतार श्री वर्द्धमान जिन शत-शत नमन ।।१।। मैं सुरेन्द्रों, असुरेन्द्रों और नरेन्द्रों से वंदित, घातिया कर्मोंरूपी मल को धो डालनेवाले एवं धर्मतीर्थ के कर्ता तीर्थंकर भगवान वर्द्धमान को प्रणाम करता हूँ। प्रवचनसार के मंगलाचरण की उक्त गाथा में आचार्य कुन्दकुन्द भगवान वर्द्धमान को धर्मतीर्थ का कर्ता कहते हैं। तीर्थंकर शब्द की व्युत्पत्ति ही यही है कि तीर्थ करोतीति तीर्थंकर:- जो तीर्थ को करे, वही तीर्थंकर है। यदि तीर्थ को करनेवाले तीर्थंकर कहलाते हैं तो फिर प्रश्न उठता है कि तीर्थ क्या है ? __जिसका आश्रय लेकर भव्यजीव संसार-सागर से पार होकर (तिरकर) मुक्ति प्राप्त करते हैं, उसे तीर्थ कहते हैं। निज भगवान आत्मा के आश्रय से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्राप्ति होती है, अनन्त अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति होती है; इसलिए निजभगवान आत्मा ही परमतीर्थ है। जैसाकि सिद्धचक्र मण्डल विधान की निम्नांकित पंक्तियों में कहा गया है - निज आत्मरूप सुतीर्थमग नित सरस आनन्दधार हो। नाशे त्रिविध मल सकल दुखमय भव-जलधि के पार हो।' १. कविवर पंडित संतलाल : सिद्धचक्र मण्डल विधान, आठमी पूजन, जल का छन्द

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