Book Title: Shashvat Tirthdham Sammedshikhar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 8
________________ शाश्वत तीर्थधाम सम्मेदशिखर स्थान पर संयम और तप को ग्रहण किया है। संयम और तप चारित्र के ही रूप हैं; अतः उक्त दोनों कथनों में वस्तुतः कोई अन्तर नहीं रहा । वीतरागी संतों के अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण एवं प्रत्याख्यानावरण कषाय के अभाव में होनेवाली अनिवार्य निर्मल परिणति, वृत्ति और संयमित प्रवृत्ति संयम है और आत्मोन्मुखी उग्र पुरुषार्थ से नित्य वृद्धिंगत शुद्धि एवं तदनुकूल वृत्ति तथा कठोर प्रवृत्ति तप है। दोनों चारित्र के ही रूप हैं। उक्त कथनों में जहाँ एक ओर आत्मा को तीर्थ कहा गया है, वहीं दूसरी ओर उसके आश्रय से उत्पन्न होनेवाले रत्नत्रय को तीर्थ कहा है; पर योगसार में मुनिराज श्री योगीन्दुदेव रत्नत्रय युक्त आत्मा को तीर्थ कहते हैं। उनका मूल कथन इसप्रकार है - " रयणत्तय संजुत्तं जिउ उत्तिमुतित्थु पवित्तु । मोक्ख कारण जोइया अण्णु ण तंतु ण मंतु ।।८३" इसका हिन्दी पद्यानुवाद इसप्रकार है - ( हरिगीत ) " रतनत्रय से युक्त जो वह आत्मा ही तीर्थ है । है मोक्ष का कारण वही ना मंत्र है ना तंत्र है ।' 99 अतः यह सुनिश्चित हुआ कि निज भगवान आत्मा के आश्रय से उत्पन्न सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ही धर्म है, तीर्थ है, मुक्ति का मार्ग है और इसी का प्रवर्तन करनेवाले तीर्थंकर कहे जाते हैं। तीर्थंकर भगवन्तों की उस परमपवित्र वाणी को, दिव्यध्वनि को, दिव्यध्वनि के आधार पर निर्मित सत्साहित्य को भी तीर्थ कहा जाता है; क्योंकि वह जिनवाणी भी, परमागम भी, आगम भी भव्यजीवों को संसारसागर से पार उतारने में समर्थ निमित्त है ।

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