________________
शाश्वत तीर्थधाम सम्मेदशिखर
"मुख्योपचारविवरण निरस्त दुस्तर विनेय दुर्बोधाः।
व्यवहारनिश्चयज्ञाः प्रवर्तयन्ते जगति तीर्थम् ॥ निश्चय और व्यवहार के विवरण द्वारा विनयवान शिष्यों का दुर्निवार अज्ञानभाव नष्ट कर दिया है जिन्होंने; ऐसे व्यवहार और निश्चयनय के विशेषज्ञ आचार्य इस जगत में धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं।"
इसप्रकार हम देखते हैं कि जैनागम में रत्नत्रयरूप धर्म के साथ-साथ देव-शास्त्र-गुरु को भी तीर्थ माना गया है, तीर्थ का प्रवर्तक माना गया है। देव में तीर्थंकर देवों के साथ-साथ समान्य जिनवरदेवों को भी ले लिया गया है। ___ संसार-सागर से पार होने में साक्षात् निमित्त होने से निश्चयतीर्थ तो निज भगवान आत्मा, रत्नत्रयरूप धर्म एवं देव-शास्त्र-गुरु ही हैं; पर व्यवहार से उन परम-पवित्र स्थानों को भी तीर्थ कहा जाता है; जहाँ उक्त देव-शास्त्र-गुरुओं ने आत्माराधना की हो, शास्त्रों की रचना हुई हो, शास्त्रों का संरक्षण हुआ हो।
व्यवहारतीर्थ की चर्चा करते हुए ‘बोधपाहुड' की संस्कृत टीका में लिखा है - ___तज्जगतप्रसिद्धं निश्चयतीर्थप्राप्तिकारणं मुक्तमुनिपादस्पृष्टं तीर्थ ऊर्जयन्त शत्रुजय लाटदेश पावागिरि.....तीर्थकर पंचकल्याणस्थानानि चैत्यादिमार्गे यानि तीर्थानि वर्तन्ते तानि कर्मक्षयकारणानि वन्दनीयानि ।'
निश्चयतीर्थ की प्राप्ति का जो कारण है, ऐसे जगत्प्रसिद्ध तथा मुक्त जीवों के चरण-कमलों से स्पर्शित ऊर्जयन्त, शत्रुजय, लाटदेश, पावागिरि आदि व्यवहारतीर्थ हैं।.....ये तीर्थंकरों के पंचकल्याणक के स्थान हैं। ये
१. आचार्य अमृतचन्द्र : पुरुषार्थसिद्धयुपाय, छन्द ४ २. जैनेन्द्रसिद्धान्त कोश भाग-२, पृष्ठ ३९३