Book Title: Shashvat Tirthdham Sammedshikhar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 21
________________ १६ शाश्वत तीर्थधाम सम्मेदशिखर चलता भी है, तो साफ - सुथरे सपाट रास्तों पर ही चलता है; ऊबड़खाबड़ रास्तों पर तो किसी का चलना होता ही नहीं है । अतः आज ये यात्राएँ बहुत ही कठिन हो गई हैं। अतः एक प्रश्न लोगों के दिमाग में सहज ही उत्पन्न होता है कि श्रमण संस्कृति के ये तीर्थ आखिर पर्वत की चोटियों पर ही क्यों हैं ? इनका निर्माण पर्वत की चोटियों पर ही क्यों किया गया, समतल भूमि पर क्यों नहीं ? यात्रियों की सुविधाओं का भी तो कुछ ध्यान रखा जाना चाहिए था। ये तीर्थस्थान जितने भी सुलभ होते, सामान्य लोग उनका उतना ही अधिक लाभ उठा सकते थे । धर्म तो सर्व सुलभ होना चाहिए, सहज सुलभ होना चाहिए, सबकी पकड़ में होना चाहिए। अरे भाई ! यह प्रश्न तो तब खड़ा होता था कि जब किसी ने बुद्धिपूर्वक इन तीर्थों का निर्माण किया होता। ये तो सहज ही बन गये हैं। हमारे तीर्थंकरों ने, साधु-सन्तों ने जहाँ आत्माराधना की, आत्मसाधना की; जहाँ वे ध्यानस्थ हो गये; वे ही स्थान तीर्थ बन गये । वैष्णव परम्परा के साधुजन गंगा के किनारे अपना स्थान बनाते हैं, समुद्र के किनारे अपना स्थल बनाते हैं; अतः उनके तीर्थ गंगा के किनारे बन गये, सागरतट पर बन गये और हमारे साधुजन पर्वतों की चोटियों पर निर्जन वन में आत्मसाधना करते हैं; अतः हमारे तीर्थस्थान निर्जन वनप्रान्त व पर्वत की चोटियाँ बन गईं। इसमें कोई क्या कर सकता है ? जब यह बात कही जाती है तो एक प्रश्न फिर खड़ा हो जाता है कि हमारे तीर्थकरों ने, हमारे सन्तों ने, आत्मसाधना के लिए ऐसे निर्जन स्थान ही क्यों चुने ? इसलिए कि हमारा धर्म वीतरागी धर्म है, आत्मज्ञान और आत्मध्यान का धर्म है। आत्मध्यान के लिए एकान्त स्थान ही सर्वाधिक उपयोगी

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