Book Title: Shadavashyak Ki Upadeyta
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 15
________________ षड़ावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में ...xiii उसका मूल अर्थ तो यही है कि विभाव दशा को रोककर स्वभाव दशा में आ जाना। प्रतिक्रमण को आत्म शोधन की एक प्रक्रिया माना गया है। प्रतिक्रमण केवल पाप प्रवृत्ति से पीछे लौटना ही नहीं है अपितु भविष्य में उन प्रवृत्तियों से न जुड़ने का प्रयत्न भी है। प्रतिक्रमण का अर्थ है गलती को गलती मान कर उससे वापस लौट आना, गलती की पुनरावृत्ति न करना। प्रतिक्रमण में प्रत्येक पाप के साथ 'तस्स मिच्छामि दुक्कडं' ऐसा पद बोला जाता है। सामान्यतया इसका अर्थ होता है कि मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। यह एक प्रकार का माफीनामा है किन्तु मेरी दृष्टि में इसका अर्थ यह नहीं है। इसका वास्तविक अर्थ है गलती को गल्ति के रूप में स्वीकार करना और उसकी पुनरावृत्ति न करना। __व्यक्ति जब तक पाप प्रवृत्ति से लौटकर स्वभाव दशा में अवस्थित नहीं होता है तब तक उसकी साधना सफल नहीं होती इसलिए प्रतिक्रमण सभी के लिए आवश्यक माना गया है। भगवान महावीर के पूर्व परम्परा यह थी कि साधक जब भी कोई गल्ती करता तो तत्काल ही उसका प्रतिक्रमण कर लेता किन्तु महावीर ने इस दिशा में थोड़ा कठोर रूप अपनाया और कहा कि साधक को प्रात:काल एवं सायं काल अवश्य ही प्रतिक्रमण करना चाहिए। क्योंकि उसी से आत्म शुद्धि की प्रक्रिया अपनी पूर्णता की ओर आगे बढ़ती है। इसलिए षडावश्यकों के अगले क्रम पर कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान इन दो आवश्यकों की चर्चा की गई है। कायोत्सर्ग का सामान्य अर्थ देह के प्रति विदेह की साधना करना है। दूसरे शब्दों में देह के निर्ममत्व की साधना करना है, क्योंकि सारी प्रवृत्ति का मूल देह के प्रति ममत्व या आसक्ति की वृत्ति है। पाप प्रवृत्ति से हमारा जुड़ाव टूटे यही कायोत्सर्ग है। कायोत्सर्ग का अर्थ काया का उत्सर्ग नहीं अपितु काया के प्रति निर्ममत्व का भाव विकसित करना है और जब यह भाव विकसित होगा तो निश्चय ही व्यक्ति पाप प्रवृत्तियों से पीछे लौटेगा और निर्ममत्व की साधना में प्रवृत्त होगा। इस प्रकार कायोत्सर्ग देह के प्रति निर्ममत्व की साधना का ही एक प्रयत्न है। षडावश्यकों में अंतिम स्थान प्रत्याख्यान को दिया गया है। इसका अर्थ है त्याग देना या छोड़ देना। प्रत्याख्यान पाप प्रवृत्तियों को पुन: न करने की प्रतिज्ञा है। इससे व्यक्ति का मनोबल मजबूत होता है और व्यक्ति पाप प्रवृत्तियों की पुनरावृत्ति नहीं करता है। कायोत्सर्ग आत्म शोधन की प्रक्रिया है तो प्रत्याख्यान विभाव दशा में नहीं जाने की दृढ़ प्रतिज्ञा है। वस्तुतः जब तक प्रत्याख्यान नहीं

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