Book Title: Shadavashyak Ki Upadeyta
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 13
________________ सम्पादकीय प्रत्येक धार्मिक साधना के कुछ आवश्यक कर्त्तव्य होते हैं जिनका परिपालन साधक को धर्म में चुस्त एवं जागरूक रखता है। जैन परम्परा में साधकों के लिए कुछ ऐसे ही आवश्यक कर्तव्यों का निर्देश है, जो श्रमण एवं गृहस्थ दोनों के लिए ही साध्य है। इन आवश्यक कर्तव्यों को जैन वांगमय में षडावश्यक की संज्ञा दी गई है। षडावश्यक के अन्तर्गत निम्न छ: आवश्यकों का समावेश होता हैसामायिक,स्तुति, वंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान। यह ध्यातव्य है कि महावीर की संघीय व्यवस्था में इनका समावेश अनिवार्य कर्तव्यों के रूप में किया गया है। प्रत्येक साधक के लिए यह आचरणीय है। इन षडावश्यकों में प्रथम स्थान सामायिक को प्राप्त है। संक्षेप में कहें तो सामायिक की साधना समत्व की साधना है और यही जैन धर्म का सार तत्त्व है। जैन साधना का अथ और इति सामायिक की साधना से ही होता है। समभाव की साधना से प्रारम्भ करके समत्व की पूर्णता तक पहुँचना यही साधक का लक्ष्य है। भगवतीसूत्र में कहा गया है कि आत्मा समत्व रूप है और समत्व को प्राप्त कर लेना यही साधना का सार तत्त्व है। जैन दर्शन में सम्यक दर्शन और सम्यक ज्ञान के साधना की पूर्णता सम्यक चारित्र में मानी गयी है। सम्यक चारित्र का ध्येय समाधि मरण या पूर्ण समभाव की अवस्था में देह से भी ऊपर उठकर देहातीत अवस्था को प्राप्त करना है। अत: यह कहा गया है कि साधक चाहे गृहस्थ हो या मुनि? उसको नियमित रूप से सामायिक या समभाव की साधना करनी चाहिए। आचार्य हरिभद्रसूरि ने तो यहाँ तक कहा है कि व्यक्ति चाहे श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, बौद्ध हो अथवा अन्य किसी परम्परा का पालन करने वाला हो यदि वह समभाव की साधना करता है तो निश्चय ही मोक्ष को प्राप्त करता है। जैन परम्परा में चारित्र साधना का प्रारम्भ सम्यक चारित्र से ही होता है और वीतराग दशा में उसकी पूर्णाहुति होती है। आचार्य कुन्दकुन्द ने तो यहाँ तक कहा है कि मोह और शोक से रहित आत्मा की जो समत्व पूर्ण अवस्था है वही मोक्ष है। आवश्यकों में दूसरा क्रम स्तुति या स्तवन को दिया गया है। इसका

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