Book Title: Saptabhangiprabha Author(s): Nemisuri, Shilchandrasuri Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti View full book textPage 5
________________ वि.सं. २०५५मां शासनसम्राट आचार्यश्रीनी स्वर्गारोहण-अर्धशताव्दीनी उजवणी थई त्यारे संकल्प करेलो के तेओश्रीना अमुक ग्रंथोनुं तथा तेओना शिष्यवृन्द-द्वारा सर्जायेला अमुक ग्रंथोनुं नवेसरथी मुद्रण करावq. ते संकल्प आजे, तेओश्रीनी सूरिपदशताब्दीना वर्षारंभे साकार थई रह्यो छे, तेनो हैये हर्ष छे. प्रस्तुत ग्रंथy नाम 'सप्तभङ्गीप्रभा' छे. तेनुं बीजुं नाम छे. 'सप्तभङ्गीउपनिषत्'. नाम परथी ज स्पष्ट छे के स्याद्वाददर्शनमां प्रतिपादित ‘सप्तभंगी' विषयक चर्चानो आ ग्रंथ छे. वि.सं. १९७९मां अमदावादमां रचायेलो आ ग्रंथ नव्यन्यायनी आरूढ परिभाषामां अने तर्कशैलीमां सप्तभंगी- विवरण करतो विलक्षण ग्रंथ छे. दिगम्वर आम्नायानुसारी ग्रंथ 'सप्तभङ्गीतरङ्गिणी' (कर्ता : विमलदास)मां प्ररूपित, अनेकान्तदर्शननी तर्कमर्यादाथी विपरीत एवा विविध मुद्दाओगें तर्कपूत खण्डन तेमज स्याद्वादशैलीए ते मुद्दाओ परत्वे प्रतिपादन ए आ ग्रंथनी विशिष्टता छे. बीजा पण दार्शनिक मुद्दाओ विषे खण्डनमण्डन अहीं छे. सप्तभङ्गी विशेना पोताना प्रतिपादन तेमज तर्कोना समर्थन माटे बीजा पण-खण्डनखण्डखाद्य, न्यायखण्डखाद्य, सम्मतितर्क, स्याद्वादरत्नाकर वगेरे दार्शनिकग्रन्थोनो तेमणे आधारलेखे उपयोग कर्यो छे, तेना संकेतो स्थान-स्थाने मळे छे. आ ग्रंथमा सर्वप्रथम सप्तभंगीना सात भांगा विशे चर्चा करी छे. त्यार पछी पृ. ३७ सुधी पूर्वपक्षनी स्थापना करी छे. अने त्यार बाद अनेक तर्को, युक्तिओ अने ग्रंथोना आधारे विस्तारथी पूर्वपक्षनुं खण्डन कर्यु छे. पूर्वपक्षनी दलीलोनुं निरसन करती वखते ते ते दलीलो नो स्वपक्षना मंडाणमा उल्लेख कर्यो छे. ते स्थानो पूर्वपक्षमा क्यां छे तेनी नोंध पादटीपरूपे, यथाशक्य शोधीने, करी छे. वळी विमलदासकृत सप्तभङ्गीतरङ्गिणी अंतर्गत केटलीक वातोनुं पण निरसन आमां करवामां आव्युं छे, ते ते स्थानो पण ते ग्रंथमांथी शोधीने पादटीपरूपे मूक्या छे । ते स्थानोना पृष्ठ तथा पंक्ति नंबर नोंधवामां, श्रीपरमश्रुतप्रभावकमण्डल, श्रीमद्राजचन्द्र आश्रम, अगास द्वारा श्रीमद् राजचन्द्र जैन शास्त्रमालाना अन्वये प्रकाशित सप्तभङ्गीतरङ्गिणी पुस्तकनो आधार लीधो छे. गहन विषय अने नव्यन्यायनी परिभाषा-शैली, आ वे कारणोथी घणा प्रयत्न छतां अमो आ ग्रंथनां रहस्योनो खरो ताग पामी शक्या नथी, ए अमारी मर्यादानो अमे आ स्थाने ज एकरार करी लईए छीए. कोई विशेषज्ञनो योग मळे तो आ ऊणपर्नु निवारण करवानी अमारी तमन्ना तीव्र छे. __ आम छतां, आ संपादननुं साहस कर्यु छ तेमां शासनसम्राट परमगुरुभगवंत प्रत्येनी भक्ति ज मुख्य निदान छे. पूज्यपाद गुरुभगवंत आचार्य श्रीविजयशीलचन्द्रसूरि म.नी सतत मळती प्रेरणाए पण आ काम करवा माटे अमने प्रोत्साहित कर्या छे. अमारा मन्द क्षयोपशमने कारणे, शास्त्र-सिद्धान्तथी तेमज ग्रंथकार महापुरुषना आशयथी विपरीत कोई संपादन थई गयुं होय तो ते माटे अमो 'मिथ्यादुष्कृत' आपीए छीए. ग्रंथकार भगवंतश्रीनी एक विशिष्टता ए पण जाणवा मळी छे के तेओश्री स्वयं कशुं स्वहस्ते लखता न हता. तेओश्री बोले अने शास्त्रीजी के तेओना विद्वान् शिष्यो लखे, ते रीते तेमनु शास्त्रसर्जन थतुं हतुं. आ भावने अनुरूप, आ पुस्तक, मुखपृष्ठ बनाववामां आव्युं छे, ते सुज्ञजनोने विदित थाय. वि.सं. २०६३ आसो सुद-१, कीर्तित्रयी अमदावाद (मुनिरत्न-धर्म-कल्याणकीर्तिविजयाः) (iv) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 ... 106