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७. तंच प्रवजितं श्रुत्वा
दध्यौ तब्दान्धावो ७ पर:। अपि जातु दवेददि
हिमानी प्रज्वलेदपि ॥ वन्हि : शीत : स्थिरो वायु :
सम्भवेन्न तु बान्धव :। हारयेदिति पप्रच्छ
लोकानश्रद्दधद् भृशम् ॥ इन्द्रभूति का दूसरा भाई था अग्निभूति. उसने जब यह सुना कि मेरे बड़े भाई साहब महाश्रमण महावीर के शिष्य बन गये है प्रव्रजित हो गये है तो उसे इस बात पर विश्वास ही नहीं हुआ. उसने समझा कि किसीने यह गप्प उड़ा दी है किसी विरोधी ने मुझे अशान्त करने के लिए यह अफवाह फैला दी है, क्यों कि मेरे ज्येष्ठ भ्राता तो विश्वविख्यात विद्वान् हैं - पहाड़ भले ही खड़ा-खड़ा पिघल जाय हिमानी (बर्फ का ढेर) भले ही जल जाय आगर भले ही ढंडी हो जाय और हवा भले ही स्थिर हो जाय, परन्तु मेरे भाई साहब शास्त्रार्थ में किसी से हार जायँ यह कदापि सम्भव नहीं है, इसलिए पराजित होने की खबर पर विश्वास न करता हुआ अग्निभूति आगन्तुकोंसे बार-बार पूछता है कि कोई तो कभी सच्ची खबर देगा कि वे हारे नहीं है जीतकर आ रहे हैं। जब सब लोगों से एक ही उत्तर मिला, तब अग्निभूतिको को मानना पड़ा क्योंकि दो-चार व्यक्ति झूठ बोल सकते हैं किन्तु सबके सब व्यक्ति झूठ नहीं बोल सकते.
ततश्च निश्चये जाते
चिन्तयामास चेतसि । गत्वा जित्वाच तं धूर्तम
वालयामि सहोदरम् ॥ फिर ज्यों ही ज्येष्ठ बन्धुकी पराजय का निश्चय हुआ, त्यों ही अग्निभूतिने सोचा कि वह कोई जादूगर मालूम होता है, जो सबको भ्रम में डालकर अपनी जालमें फँसा लेता है सम्मोहित कर लेता है, परन्तु मैं
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