Book Title: Sanshay Sab Door Bhaye
Author(s): Padmasagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 60
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं तत्फलमश्नुते । स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद्विमुच्यते ॥ ( आत्मा (संसार में) स्वयं कर्म करती है और स्वयं ही उसका ही फल भोगती है. स्वयं ही संसार में भटकती है और स्वयं ही उससे मुक्त होती है ।) घरमें देखिये एक ही माता-पिता के चार बच्चे हों तो भी उनके स्वभाव भिन्न होंगे उनकी आकृतियाँ भिन्न होंगी उनके व्यावहार भिन्न होंगे उनकी आवाज में भिन्नता होगी और अक्ल में भी. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यह भिन्नता आई कहाँ से ? इस भिन्नता का कारण क्या है। कारण है- कर्म. मनुष्य सोचता क्या है और होता क्या । दोनों का मेल नहीं बैठता. हर मनुष्य चाहता है मैं सर्वतन्त्र स्वतन्त्र सार्वभौम सम्राट बन जाऊँ, परन्तु सारा जीवन परतन्त्रतामें ही कट जाता है। हर आदमी तन्दुरस्ती चाहता है, लेकिन पूरी जिन्दगी बीमारी भोगते-भोगते ही बीत जाती है । इसका कुछ तो कारण मानना ही पडेगा । कर्म ही वह कारण है यह कार्य परमात्माका नहीं है वह तो सर्वज्ञ - सर्वदर्शी होने से केवल जानता देखता है. संसार में प्राणियों को भटकाने की खटपट वह नहीं करता यह कार्य करता है मात्र कर्म. कहा है. सव्वे जीवा कम्मवास, चौदह लोक भमन्त ॥ चौदह रज्जु लोक में सारे जीव कर्म के वशीभूत होकर भ्रमण करते रहते हैं गोस्वामी सन्त तुलसीदास भी अपने "राम चरित मानस " नामक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ में लिख गये हैं. कर्मप्रधान विस्व करि राखा' जो जस करहि सो तस फल चाखा ॥ सम्पूर्ण विश्व कर्मप्रधान है जो जैसा कर्म करता है, वह वैसा फल भोगता है जगत की सारी व्यवस्थाका आधार कर्म है. आपका जन्म भी आपके ४२ For Private And Personal Use Only

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