Book Title: Sanshay Sab Door Bhaye
Author(s): Padmasagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 91
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुण्यतत्त्व का अस्तित्व न होता तो आगे चलकर "पुण्यः पुण्यने कर्मणा ॥" ऐसा क्यों लिखा जाता ? जैसे अपवित्र कार्यों से पाप होता है, पवित्र कार्यों से पुण्य भी होता है. आत्मा नित्य है. वह अनित्य शरीर के द्वारा संसारमें भटकती हुई संचित पुण्य पाप के अनुसार सुख-दुःख पाती रहती जब-जब व्यक्ति पुण्य कर्म करता है, तब-तब उसकी परत आत्मा पर चढ़ जाती है और जब-जब वह पाप कर्म करता है, तब-तब उसकी भी परत आत्मा पर क्रमशः चढ़ती जाती है. अगले भवमें शरीर तो नया मिलता है., परन्तु पुण्य-पाप की परतों वाली आत्मा वही रहती है. उस भवमें जब पुण्य की परत खुलती है (पुण्योदय होता है) तब आत्मा को अनुकूल परिस्थितयोंके साथ सुख प्राप्त होता है और जब पापकी परत खुलती है तब आत्माको प्रतिकूल परिस्थियोंके साथ दुःख प्राप्त होता है. जैसे पापका फल भोगना अनिवार्य है, वैसे पुण्यका फल भोगना अनिवार्य है. एक लोहेकी बेड़ी है तो दूसरी सोने की. परन्तु बन्धन दोनों हैं. जैसे अपने खुले शरीर पर तेलकी मालिश करके कोई व्यक्ति सड़क पर बैठ जाय तो तेलके परिमाणमें पुण्य-पाप की रज चिपकती रहेगी. जो राग द्वेषसे मुक्त हो जाता है, उसकी आत्मा पर कर्मरज नहीं चिपकती. पापका संपूर्ण क्षय होने पर भी यदि आत्मा पर पुण्य की रज चिपकी हुई हो तो उसे भोगने के लिए उसे देवलोकमें जन्म लेना पडेगा., इसलिए तुम्हारा यह भ्रम है कि केवल पाप तत्त्व माननेसे ही काम चल सकता है." इस प्रकार प्रभु के वचनोंसे सन्देह मिट जाने के बाद अचलभ्राताने भी अपने छात्र-समुदाय के साथ आत्मसमर्पण कर दिया सबको दीक्षित करनेके बाद अचलभ्रताको प्रभुने त्रिपदीका ज्ञान दिया. उसके आधार पर उन्होंने द्वादशांगी की रचना की. प्रभुने उन्हें नौवें गणधर के रूप में प्रतिष्ठित किया. अथ परभवसन्दिग्धम् मेतार्यं नाम पण्डितप्रवरम् । ऊचे विभुर्यथार्थम् वेदार्थ किं न भावयसि ? ..... ..... ७३ For Private And Personal Use Only

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