Book Title: Sanmati Tirth Varshik Patrika
Author(s): Nalini Joshi
Publisher: Sanmati Tirth Prakashan Pune

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Page 8
________________ अन्मति-तीर्थ सन्मति-तीर्थ ५) विहार या गोचरी के समय बहत से लोगों का वह उपहासपात्र या दयापात्र हो सकता है। जब देवताप्रीत्यर्थ बलिविधान किया जाता है तब बलि का पशु भी सुलक्षणी और अव्यंग होता है । साधु तो आदर्शभूत है । वह सभी दृष्टि से अव्यंग होने की ही अपेक्षा की जाती है। जैन सिद्धान्तों की अगर बात करें तो अनेकान्तवाद समझाने के लिए भी हाथी और सात अन्धों का दृष्टान्त किया जाता है । नहीं पडती । लेकिन अव्यंगव्यक्ति ही दीक्षा की अधिकारी होती है । इस सम्बन्ध में यह विचार उभरकर आता है कि अन्धव्यक्ति अगर पूरी वैराग्यसम्पन्न हो, तो उसका लिहाज जैनधर्म ने क्यों नहीं किया है ? अन्धव्यक्ति के वैराग्य का कोई भी मायने नहीं है ? वैसे भी साधु-साध्वी संघ में ही रहते हैं । संघ के आचार में वैयावृत्य का प्रावधान भी है । अगर एखाद व्यक्ति अन्ध हो तो उसकी संघ में सहजता से सेवा भी की जा सकती है। इन प्रश्नों पर जब विचारमन्थन शुरू होता है तो सामने आता है, समाज का प्रभाव । आज भी और सूत्रकृतांग के समय भी अन्धलोगों के प्रति समाज का दृष्टिकोण अनुदार ही रहा है । उन्हें गौण समझते हैं और समझते थे । किसी भी धर्म-सम्प्रदाय की पूजनीय व्यक्ति हमें अन्ध या अपंग नहीं दिखायी देती । इसकी कारणमीमांसा हम इस प्रकार कर सकते हैं - अपंग व्यक्ति सामान्य गतिविधियाँ सुचारू रूप से नहीं कर सकती । उसका अहिंसापालन ठीक से नहीं हो पाता । अहिंसा तो धर्म का मूल है । उसपर आघात हो सकता है। साधुसाध्वी आदर्शभूत है । किसी विकलांग को हम आदर्श रूप में सोच भी नहीं सकते। अगर एक विरागी अन्ध को दीक्षा दी तो शायद इतर अन्धव्यक्ति वैराग्य न होते हुए भी केवल चरितार्थ के लिए दीक्षा ले सकते हैं। अन्धव्यक्ति के बारे में लोग कह सकते हैं कि, 'यह तो खुद अन्धा है। यह हमें क्या रास्ता दिखायेगा ?' २) ३)

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