Book Title: Sanmati Tirth Varshik Patrika
Author(s): Nalini Joshi
Publisher: Sanmati Tirth Prakashan Pune

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Page 30
________________ सम्मति-तीर्थ अन्मति-तीर्थ (१७) सूत्रकृतांग-लेखमाला : जैन जागृति मासिकपत्रिका (लेखांक ३) सूत्रकृतांग में श्रुत-धर्म व्याख्यान : डॉ. नलिनी जोशी शब्दांकन : सौ. चंदा समदडिया भगवान महावीर निर्वाण के पश्चात् आचार्य सुधर्मा स्वामी के पास आर्य जम्बू स्वामीने 'संयम' ग्रहण किया । तत्कालीन समाज में भ. महावीर के अनुयायियों की तरह बौद्ध, सांख्य, आजीवक आदि श्रमण परम्परानुयायी और ब्राह्मण परम्परानुयायी कई भिक्षु काफी तादात में यत्र-तत्र नजर आते थे । हिंसा-प्रधान वैदिक धर्म की जनमानस पर गहरी छाप थी। फिर भी सूक्ष्म अहिंसा सिद्धान्त पर आधारित सबसे अलग जीवनशैली, वेशभूषा, खानपान, रहनसहन आदि के कारण जैन साधुसाध्वियों की अपनी अलग पहचान थी । अनायास आम समाज को तथा अन्य तीर्थियों को यह जिज्ञासा होती थी कि 'केशलुंचन, पैदल विहार, उग्र तपस्या आदि अत्यन्त कठोर आचरणवाला ऐसा कौनसा धर्म और मार्ग इनके धर्मनेता ने बताया है ?' यही जिज्ञासा 'सूत्रकृतांग' के 'धर्म और मार्ग' अध्ययन में जम्बू स्वामी ने आ. सुधर्मा स्वामी के पास प्रकट की है। आ. सुधर्मा स्वामी ने योग्य शिष्य और योग्य अवसर देखकर भ. महावीर द्वारा प्ररूपित चक्षुर्वैसत्यम् धर्म का स्वरूप समझाया । सुधर्मा स्वामी कहते हैं "केवलज्ञानी, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, वीतरागी पुरुष सम्पूर्ण वस्तु स्वरूप को यथातथ्य देखते हैं, जानते हैं और उसी सत्यस्वरूप की प्ररूपणा करते हैं । ऐसा सत्य प्रतीति पर आधारित, सर्वोत्तम, शुद्ध धर्म बहुत दुर्लभ है । वह यत्र तत्र नहीं मिलता।" इससे स्पष्ट होता है कि अन्यमतावलम्बी लोग केवलज्ञान या सर्वज्ञता को नहीं मानते थे । ऋजुता की ओर ले जानेवाला, माया प्रपंच से रहित अत्यन्त सरल ऋजु धर्म यहाँ भ. महावीर ने बताया है। ___ 'धर्म' का स्वरूप समझने के लिए प्रत्यक्षदर्शी महावीर का बताया हुआ वस्तुस्वरूप समझना जरूरी है । ‘मार्ग' अध्ययन की गाथा क्र. ७/८ के अनुसार जीव स्वरूप संक्षेप में इस प्रकार है - सृष्टि में पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय यह पाँच 'स्थावर' या एकेन्द्रिय जीव है और द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय यह चार त्रस' ऐसे षट्जीवनिकाय सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त हैं । इनके अतिरिक्त संसार में अन्य जीव-निकाय या जीव नहीं है । यह 'स्थावर जीव' संकल्पना केवल जैन दर्शन की ही देन है । अन्य दर्शनों ने पृथ्वी, अप् आदि पाँच को जड, प्रकृति-रूप पंचमहाभूत माना हैं । आगे सुधर्मास्वामी महावीर प्ररूपित पृथ्वीकायिक इत्यादि का स्वरूप बतलाते हैं । पृथ्वी जिनकी काया है, ऐसे पृथक पृथक अस्तित्ववाले असंख्यात जीवों का पिण्ड पृथ्वीकायिक जीव कहलाते हैं । इसके अलावा पृथ्वी के आश्रित असंख्यात त्रसादि जीव भी होते हैं । ऐसा ही अन्य चार स्थावर, एकेन्द्रिय के बारे में जानना चाहिए । “परस्परोपग्रहो जीवानाम्” उक्ति के अनुसार सभी जीवों का जीवन एकदूसरे पर निर्भर होता है । सभी जीवों की चेतना एवं सुखदुःखानुभूति समान होती है । सभी को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है । सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। अब कर्मबन्ध का स्वरूप बताते हुए सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि 'कोई किसी भी जाति या कुल में उत्पन्न हुआ हो, जब तक वह आरम्भ (हिंसा), परिग्रह का (५२)

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