Book Title: Sanmati Tirth Varshik Patrika
Author(s): Nalini Joshi
Publisher: Sanmati Tirth Prakashan Pune

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Page 29
________________ अन्मति-तीर्थ अपेक्षा से समयवर्ती या क्षणिक भी माना है । जीव और पुद्गल दोनों को जैन दर्शन क्रियाशील मानता है । इसलिए कर्मसिद्धान्त जैन दर्शन की रीढ की हड्डी है, मेरुदण्ड है। क्रियावाद : जो आत्मतत्त्व, गति, आगति, आस्रव, संवर, निर्जरा, कर्मसिद्धान्त, लोकस्वरूप आदि सभी जानते हैं। लेकिन ज्ञान का निषेध करके केवल क्रिया से ही स्वर्ग या मोक्षप्राप्ति मानते हैं उन्हें शास्त्रकार ने 'क्रियावादी' कहा है । जैन दर्शन का 'प्राण' जो 'अहिंसा सिद्धान्त' है, इस सिद्धान्त के परिपालनार्थ जो मन-वचन-काया इन योगों का अर्थात् क्रिया का निषेध किया गया है, इसलिए जैन या श्रमण परम्परा निवृत्तिप्रधान है ऐसा कहा जाता है। लेकिन यहाँ सूत्रकृतांग में 'अहिंसक चारित्रपालन' को भी 'क्रिया' कहा है । चारित्रपालन के अन्तर्गत जो भी जप, तप, स्वाध्याय, सामायिक आदि किया जाता है उन सबको 'क्रिया' ही कहा गया है । इस दृष्टि से जैन दर्शन को ही यहाँ 'क्रियावादी' माना है । जैन सिद्धान्त के अनुसार ज्ञान और क्रिया दोनों के समन्वय से ही स्वर्ग या मोक्षप्राप्ति मानी गयी है । 'संयम' आदि मोक्षप्रद क्रियाओं को जैन दर्शन में क्रियावादियों के १८०, अक्रियावादियों के ८४, अज्ञानवादियों के ६७ और विनयवादियों के ३२ भेद बताये गये हैं । ये सब मिलकर ३६३ मत होते हैं । इन सबका 'समवसरण' अध्ययन में निराकरण किया गया है । महावीर के प्रबल प्रतिस्पर्धियों में प्रमुख थे बौद्ध और आजीवक । अक्रियावादी बौद्धों के 'क्षणिकवाद' और 'शून्यवाद' तथा 'सर्वं दुक्खं' इन मतों का निराकरण करते हुए महावीर कहते हैं, "सयंकडं णन्नकडं च दुक्खं, आहेसु विज्जाचरणं सम्मति-तीर्थ पमोक्खं ।" अर्थात् हरएक को सुखदुःख प्राप्ति स्व-कर्मकृत होती है। अन्य के कर्मों का फल नहीं भोगना पडता है । भ. महावीर कहते हैं कि "मोक्षप्राप्ति ज्ञान और क्रिया दोनों से होती है, अकेली क्रिया से या अकेले ज्ञान से मोक्षप्राप्ति नहीं हो सकती।" 'समवसरण' का 'सूत्रकृतांग' में प्रतिबिम्बित अर्थ जो 'वाद-संगम' है उसका पूरा चित्रण ही हमारे सामने आता है । इसमें तत्कालीन करीब करीब सभी वादों का या मतों का यहाँ जिक्र किया गया है । महावीर के बाद भी कई नये दर्शनों का निर्माण हुआ है जैसे ईसाई, ईस्लाम, सिक्ख आदि । फिर भी आज के विज्ञानयुग में भी जैन दर्शन का स्थान अक्षुण्ण, अबाधित है । अपनी तर्कशुद्धता, सैद्धान्तिकीकरण और समन्वयता इन गुणों के कारण जैन दर्शन ने पूरे विश्व में अपना अलग स्थान प्राप्त कर लिया है। 'समवसरण' का मूल अर्थ 'तत्त्वचर्चा' या 'धर्मचर्चा' है । इससे 'समवसरण'सम्बन्धी काल्पनिक, अद्भुत, रम्य, भ्रान्त धारणा का निराकरण होता है और वास्तववादी, तत्त्वाधार की मजबूत नींवपर खडा, तर्कशुद्ध जैन दर्शन को ऐसे अद्भुतरम्यता के मुलामें की जरूरत ही नहीं है।

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