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अन्मति-तीर्थ (८) 'ग्रन्थ' अध्ययन में आदर्श अध्यापक
- बालचन्द मालु 'सूत्रकृतांग' इस आगम के प्रथम श्रुतस्कन्ध के सोलह अध्ययन हैं । उसका चौदहवाँ अध्ययन 'ग्रन्थ' है।
प्राचीन समय में नवदीक्षित साधुको सभी परिग्रहों को तोडकर 'गुरुकुल' में रखा जाता था । उसे आचार्यद्वारा सभी शिक्षाएँ मिलती थी । वह स्वावलम्बन से, संयम से अनुशासन में रहकर ब्रह्मचर्य पालन करता था । ऐसा शिष्य 'ग्रन्थी' कहलाता है । धर्म और आगमज्ञान परिपक्व होनेतक आचार्य उसका दुष्प्रवृत्ति से संरक्षण करते थे । गुरु के सान्निध्य से शिष्य का आचरण ओजस्वी और सम्यक्त्वी बनता था।
प्रतिभासम्पन्न शिष्य बनवाने के लिए गुरु को भी अनुशासन पालना पडता था । 'ग्रन्थ' अध्ययन के मार्गदर्शन से 'आदर्श अध्यापक' बनवाने के लिए नीचे बताये हुए कुछ विशेष गुणों की जरूरत होती है ।
सबसे पहले अध्यापक को मूलतः प्रज्ञावान और समझदार होना जरूरी है। अपने विषयमें प्रवीण होने के कारण ही वह सूरज के समान चारों ओर से प्रकाशित करने जैसा ज्ञान दे सकता है । अध्ययन-अध्यापन प्रक्रिया सजीव होती है । इसलिए अध्यापक को द्वेषभाव टालकर परस्परों में प्रेमभाव का संवर्धन करना होगा। किसी भी छोटी सी शंका का पूर्णता से समाधान करने की कला याने शिक्षक का शैक्षणिक मानसशास्त्र और शिक्षणशास्त्र उत्तम होना जरूरी है । सभी शंकाओं का समाधान करते समय किसी भी अर्थ का अनर्थ न करे या होनेवाले अहंकार से हमेशा दूर रहें।
अन्मति-तीर्थ शंका-समाधान मृदुभावसे होगा तो किसी का भी तिरस्कार नहीं होगा । अखण्ड झरने जैसा निर्मल ज्ञान मधुर वाणी से देने के लिए अध्यापक निरन्तर अभ्यास करनेवालाही होना चाहिए । प्रत्येक वस्तु 'अनेक धर्मी' होती है । इसलिए कोई भी अर्थ स्पष्ट करते समय 'स्याद्वाद' से प्रत्येक विधान की सत्यता सामने लाए । सत्य हमेशा कडवा और कठोर होता है । इसलिए समझदारी से स्वयं की प्रशंसा टालकर, कषाय न बढाते सत्य विधान करें । बोलते समय संदिग्ध या अधूरा न बोले लेकिन विभज्जवाद से सत्य और तथ्य स्पष्ट करें । अनेकान्तवाद से किसी भी सूत्र की समीक्षा करें और निन्दा टालें । किसी भी प्रश्न का उत्तर मर्यादित हो, उसे अनावश्यक बढाना ठीक नहीं अन्यथा स्वयं के और दूसरों के पापविकारों की ओर ध्यान देना होगा ।
नया संशोधित ज्ञान निरन्तर प्राप्त करके, चिन्तन करने से समय का सदुपयोग होगा और दूसरे की मर्यादा सम्भाली जाएगी । वक्तृत्व का सम्यक् व्यवस्थापन करनेवाला कभीभी संकुचित विचार प्रस्तुत नहीं करता और दूषित दृष्टि नहीं रखता। इसी कारण सूत्र और अर्थ में सुसंगति लाना जरूरी है । अध्यापक के वाणी में सागर के संथ लहर जैसी सरलता और प्रमाणबद्धता आवश्यक है।
सद्यस्थिति में अगर कोई अध्यापक इस अध्ययन में निहित तथ्योंपर विचार एवं अमल करेगा तो वह जरूर आदर्श अध्यापक बनेगा ।