Book Title: Sanmati Teerth Varshik Patrica 2013
Author(s): Nalin Joshi, Kaumudi Baldota, Anita Bothra
Publisher: Sanmati Teerth Pune

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Page 31
________________ तम्हि समए आरियखेत्तठियस्स रायगिहस्स राया सेणिओ आसी । तस्स पुत्तो चउव्विहबुद्धीहिं संजुत्तो अभयकुमरो एगया अद्दगराइणा सेणियस्स कए दूयहत्थेण बहुमोल्लं पाहुडं पेसियं । अद्दगकुमारेण वि अभयस्स कए काई वत्थूणि पाहुडरूवेण पेसियाणि । दुवे पाहुडाणि घेऊण अद्दगराइणो दूओ सेणियस्स अत्थाणमंडवे पविट्ठो । सेणिएण तस्स जहोचियं बहुमाणो कओ । पाहुडाणि अंगीकयाणि। जया सेणिएण अद्दगराइणो कए पडिपाहुडं सज्जीकयं तथा अभयकुमरेण वि अद्दगकुमरस्स कए विसिटुं पडिपाहुडं सज्जीकयं । अभयकुमरेण नाणस्स उवओगेण जाणियं, ‘अद्दगकुमारो परमट्टेण भविजीवो अत्थि ।' तस्स पडिबोहत्थं अभयकुमरेण एगाए मंजूसियाए एगा अप्पडिमा जिणपडिमा तहा मुहपत्ती ठविया । सा मंजूसा दूयहत्थेण तस्स कए पेसिया। ___मंजूसियं पासिऊण अद्दगकुमारेण कोऊहलवसेण तुरियं तुरियं सा उग्घाडिया । जिणपडिम, मुहपत्तिं च दळूण सो मणम्मि चिंतिउण लग्गो, ‘एयाणि वत्थूणि मए पुव्विं कत्तो वि पासियाणि ।' एयावसरे तस्स जाइसरणं समुप्पन्नं । सो सरइ जहा – “वसंतपुरम्मि नयरे अहं एगो उवासगो होत्था । संसारस्स असारत्तं मुणिऊण अहं भज्जाए सह पव्वइसे । सामण्णे वि एगया भज्ज पासिऊण तम्मि अणरत्तो जाओ। मए तस्स अइचारस्स आलोयणा न कया । अणालोइय -अपडिक्कंत-अवत्थाए कालमासे कालं किच्चा देवलोगम्मि उववन्नो । देवलोगाओ चइऊण अहं अद्दगपत्तो त्ति जाओ।" एयारिसो अप्पणो पुव्वभववुत्तंतं जाणिऊण अद्दगो संसाराओ विरत्तो । आरियदेसे आगंतूण सो जिणसासणे पव्वइओ । भगवं वद्धमाणस्स दंसणटुं तेण विहारजत्ता आरद्धा । मग्गम्मि तस्स गोसालओ, हत्थितावसो परिव्वायगो बुद्धभिक्खु इच्चेइयाइं परदसणवाइणो मिलिया। ते सव्वे अप्पणो दंसणाई परमठुरूवेण कहेंति । निग्गंथधम्म उवलक्खिऊण उवहासपरं भासंति । अद्दगेण एगेगस्स कहणं सुणियं । तेसिं निराकरण कयं । निग्गंथधम्मस्स महत्तणं तेण अणुजुत्तीहिं साहियं । एवं पयारेण अहोण सव्वे परसमयवाइणो पराइया । मग्गे तेसिं सव्वेसिं सह अद्दगस्स जो वायपडिवायं होइ तस्स संकलणं सूयगडस्स बीयं - सुयक्खंधस्स 'अद्दइज्ज' अज्झयणे दीसइ । सूयगडस्स ससमय-परसमय-रूवेण जा पसिद्धी सा अद्दइज्ज-अज्झयणे सविसेसं दीसइ । ********** (१६) हस्तितापस के मत का संभाव्य खण्डन संगीता मुनोत वध तो बस वध है, हस्तितापस का है यह कहना भावों के परिणामों को, लेकिन उसने कहाँ पहचाना । भोगरूप आमिषरत प्राणि, स्थूलरूप हिंसा कर जाना सूक्ष्मता में इसकी छिपा है, जीवन का सत्य खजाना ।। सूत्रकृतांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में 'आर्द्रकीय' नामक छठाँ अध्ययन है । उसमें आर्द्रकमुनि, गोशालक आदि अन्यमतावलम्बियों को प्रश्नों का उत्तर देते हैं। उसी श्रृंखला में नित्य वनस्पति छेदन की अपेक्षा, एक बार हस्तिवध करना - कम पापमय है, इस मिथ्याधारणा को हस्तितापस उचित मानते हैं । आर्द्रकमुनि उसके इस भ्रम को सत्य कथनों से दूर करते हैं । पंचेन्द्रिय वध में ज्यादा पाप है', इसी विषय को लेकर कुछ और तथ्योंको आपके समक्ष रखना चाहती हूँ। यदि हम एक ही सत्य माने कि, 'सब आत्मा समान हैं और सबको मारने में एक समान पाप है', तो फिर

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