Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 04 Author(s): Abhaydevsuri Publisher: Divya Darshan Trust View full book textPage 9
________________ ६ प्रस्तावना बहुत बहुत आनंद एवं गौरव की बात है कि सिद्धसेन दिवाकर सूरि विरचित (प्राकृत में) सन्मति-तर्कप्रकरण, आचार्य तर्कपंचानन श्री अभयदेवसूरिजी विरचित संस्कृत व्याख्या ( एवं मूल और व्याख्या सहित उभय) के हिन्दी विवेचन का चतुर्थ खण्ड आप के करकमल की शोभा है। यह इस के पहले १-२-५ ये तीन खंड प्रकाशित हो चुके हैं। तीसरा खंड मुद्रणाधीन । तीसरे खंड में प्रथमकाण्ड की ५ से ५४ मूल गाथा ( या कारिका) तथा उन की व्याख्या का समावेश कर के प्रथम काण्ड पूरा किया है। उस में समस्त ज्ञेय पदार्थ सामान्य-विशेषोभयात्मक है विस्तार से निवेदन किया है। चौथे खण्ड में जिस को 'ज्ञानमीमांसा' कहा जाता है - उपयोगात्मक ज्ञान भी अन्योन्य सापेक्ष सामान्य विशेषोभयग्राही दर्शन - ज्ञान उभयस्वरूप है निरूपण है। इस तथ्य का सविस्तर प्रारंभ में, उपयोग द्वैविध्य का निरूपण (पृ. 9) करने के बाद प्रमाण के सामान्य लक्षण की चर्चा की गयी है (पृ.२ से २१५) तदनन्तर विस्तार से प्रत्यक्ष प्रमाण की मीमांसा प्रस्तुत है (पृ. २१६ से ३३६) जिस में न्यायदर्शन - बौद्धदर्शन - विन्ध्यवासी - जैमिनीय रचित लक्षणों की समीक्षा कर के सिद्धान्ती की ओर से प्रत्यक्ष लक्षण का निरूपण किया गया है । पृ.३२७ से ३३३ तक चार्वाकमत की समीक्षा की गयी है । इस में इन्द्रियों की प्राप्य - अप्राप्य कारिता (पृ. २७८ से २९०) तथा तिमिरभाववाद (पृ. २९१२९२) की महत्त्वपूर्ण चर्चा है । फिर प्रत्यक्ष के भेदों की सिद्धान्तानुसारी मीमांसा है । तदनन्तर (पृ.३३३ से ३८२ में) अनुमान के प्रामाण्य की चर्चा है । उस में चार्वाक, बौद्ध, अक्षपाद, मीमांसकों के अनुसार लक्षण की समालोचना की गयी है। तदनन्तर, (पृ.३८३ से ३८५ में) प्रमाण की इयत्ता के बारे में चर्चा प्रस्तुत है । इस विभाग में बौद्ध-नैयायिक-मीमांसकों की मान्यताओं की समीक्षा की गयी है । प्रसङ्गतः उपमान - अर्थापत्ति-अभाव के स्वतन्त्र प्रामाण्य का निरसन है, अनुमान में उन का अन्तर्भाव किया गया है । आखिर सिद्धान्तीमतानुसार (पृ. ४४१ ) प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो प्रमाणों की प्रतिष्ठा की गयी है । उपयोगद्वय (दर्शन-ज्ञान) की चर्चा से ले कर प्रमाणद्वय की पूरी चर्चा प्रथम गाथा की व्याख्या के रूप में की गयी है । दूसरी गाथा में दर्शन और ज्ञान के जो स्व-स्व आकार सामान्य- विशेषरूप हैं वे भी अन्योन्याकार से गर्भित ही है यह दिखाया गया है । सारांश, अन्योन्य निर्विभाग वृत्ति द्रव्य - पर्याय ग्राही दर्शन और ज्ञान उभय प्रमाणभूत होने का निष्कर्ष कहा गया है । अब तीसरी गाथा (पृ. ४४५) से ले कर ३१ वीं गाथा तक (पृ.४९७) केवलदर्शन- केवलज्ञान के क्रम / यौगपद्य एवं भेदाभेद की विस्तार से चर्चा की गयी है । यह चर्चा धे. जैनदर्शन में बहुत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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