Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 04
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 8
________________ सम्पादक के उद्गार परमात्मा की असीम कृपा और पूज्य गुरुभगवंतो की शुभाशिष, आज सन्मतितर्क० ग्रन्थ के चतुर्थ खण्ड का एवं उस के अनुवाद-विवेचन का सम्पादन कार्य पूरा हुआ है। यह मूल ग्रन्थ एवं उस की व्याख्या का चौथा खंड जो पहले गुजरात विद्यापीठ - अमदावाद की ओर से, सुखलाल एवं बेचरदास की जोडीने सम्पादित कर के प्रकाशित करवाया था, उस सम्पादन का इस आवृत्ति में उपयोग किया गया है। तथा, लिम्बडी श्वे.मू.जैन संघ के अमूल्य ज्ञानभंडार से प्राप्त हुई सन्मतितर्क० (सटीक) प्रति की जब जब जरूरत लगी, उपयोग किया गया है। पूर्व सम्पादन में जहाँ जहाँ सम्पादन त्रुटियाँ' पूर्णविराम आदि की गलती मालूम पडी उन को सुधारना पड़ा है। तथा बडे बडे परिच्छेदों का विषयसंदर्भ न तूटे ऐसी सावधानी रख कर छोटे छोटे परिच्छेदों में विभाजन किया गया है। पूर्व सम्पादन में जहाँ जहाँ त्रुटियाँ दृष्टिगोचर हुयी उन्हें संशोधित कर के, संमार्जित कर के यथासंभव शुद्धिकरण करने का प्रयास किया गया है। प्रमाणवार्त्तिक के श्लोक आदि का स्थाननिर्देश जो बाकी था वह भर दिया गया है। इस सम्पादन में कुछ कुछ टीप्पणीयाँ हमने जोडी है। बहुशः टीप्पणीयाँ पूर्व मुद्रित प्रकाशन में से भी यहाँ जोड दी है, जो प्रायः भूतपूर्व सम्पादक सुखलाल-बेचरदास ने जोडी हुई है। इस चतुर्थ खण्ड में पूर्ण द्वितीय काण्ड, १ से ४३ मूल गाथा एवं व्याख्या तथा मूल एवं व्याख्या का हिन्दी विवेचन समाविष्ट किया गया है। संस्कृत व्याख्या में जहाँ पूर्वमुद्रित में कौंस अन्तर्गत शीर्षक थे उन में बहुत स्थान पर हमने जरूरी परिवर्तन किया है। हिन्दी विवेचन के सब शीर्षक हमारे जोडे हुए हैं। विशेषतः इस संस्करण के साथ मूल एवं व्याख्या का हिन्दी विवेचन प्रस्तुत किया है। सम्भव है, छद्मस्थतावश इस सम्पादन-संशोधन-विवेचन कार्य में कोई त्रुटि या क्षति रह गयी हो, मालूम पडने पर वाचक गण अवश्य उन का संमार्जन करे यह प्रार्थना है। जैन शासन - जैन संघ की यह बलिहारी है कि मुझे ऐसी सेवा का सौभाग्य प्राप्त हुआ, उस के लिये सदैव जैनशासन - जैन संघ का मैं आभारी रहूँगा। विशेषतः सिद्धान्त महोदधि ब्रह्मचर्यसम्राट पू.आचार्यदेव श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी म. सा. उन के पट्टालंकार न्यायविशारद पू. आ. श्री विजय भुवनभानु सू.म. सा. तथा उन के पट्टविभूषक प.पू. सिद्धान्तदिवाकर ग.प. आचार्य जयघोष सू.म.सा. का मैं सदा के लिये ऋणी रहूँगा, जिन्होंने मुझे अमूल्य संयम जीवन का प्रदान कर के, मुक्तिमार्ग की आराधना में जोड कर, स्वाध्याय की रुचि जगा कर ऐसी श्रुत सेवा के कार्य में जोड कर, अपूर्व कर्मनिर्जरा में सहभागी बनाया है - उन्हें कोटि कोटि वन्दन। तदुपरांत मेरा शिष्यगण एवं अन्तेवासियों को अनेक धन्यवाद हैं जिन्होंने मुझे अन्य कार्यों से निश्चिन्त बना कर इस कार्य में अविरत प्रवृत्ति करने के लिये प्रचुर सहयोग दिया। श्रमण भगवान महावीर-प्रस्थापित वर्तमान चतुर्विध संघ का भी जितना उपकार माना जाय, कम है। लि० जयसुंदर विजय भाद्रपद सुदि १५ - सं. २०६६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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