Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 04 Author(s): Abhaydevsuri Publisher: Divya Darshan Trust View full book textPage 6
________________ आशिर्वचन प.पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजय भुवनभानु सू.म.सा. दुष्काल में घेवर मीले वैसा यह ‘सम्मति-तर्क०' टीका-हिंदी विवेचन ग्रन्थ आज तत्त्वबुभुक्षु जनता के करकमल में उपस्थित हो रहा है । आज की पाश्चात्य रीतरसम के प्रभाव में प्राचीन संस्कृतप्राकृत शास्त्रों के अध्ययन में व चिंतन-मनन में दुःखद औदासीन्य दिख रहा है । कई भाग्यवानों को तत्त्व की जिज्ञासा होने पर भी संस्कृत, प्राकृत एवं न्यायादि दर्शन के शास्त्रों का ज्ञान न होने से भूखे तड़पते हैं, ऐसी वर्तमान परिस्थिति में यह तत्त्वपूर्ण शास्त्र, प्रचलित भाषा में एक पक्वान्न-थाल की भांति उपस्थित हो रहा है। दरअसल राजा विक्रमादित्य को प्रतिबोध करने वाले महाविद्वान् जैनाचार्य श्री सिद्धसेनदिवाकर महाराज ने जैनधर्म के प्रमुख सिद्धान्त स्याद्वाद-अनेकांतवाद का आश्रय कर एकांतवादी दर्शनों की समीक्षा व जैनदर्शन की सर्वोपरिता की प्रतिष्ठा करने वाले श्री संमतितर्क (सन्मति तर्क) प्रकरण शास्त्र की रचना की। इस पर तर्कपंचानन वादी श्री अभयदेवसूरिजी महाराज ने विस्तृत-व्याख्या लिखी जिसमें बौद्ध-न्याय-वैशेषिक-सांख्य-मीमांसकादि दर्शनों की मान्यताओं का पूर्वपक्षरूप में प्रतिपादन एवं उनका निराकरण रूप में उत्तर पक्ष का प्रतिपादन ऐसी तर्क पर तर्क, तर्क पर तर्क की शैली से किया है कि अगर कोई तार्किक बनना चाहे तो इस व्याख्या के गहरे अध्ययन से बन सकता है। इतना ही नहीं, किन्तु अन्यान्य दर्शनों का बोध एवं जैन दर्शन की तत्त्वों के बारे में सही मान्यता एवं विश्व को जैनधर्म की विशिष्ट देन स्वरूप अनेकान्तवाद का सम्यग् बोध प्राप्त होता है । इस महान शास्त्र को जैसे पढते चलते है वैसे वैसे मिथ्या दर्शन को मान्य विविध पदार्थ व सिद्धान्त कितने गलत है इसका ठीक परिचय मिलता है, व जैन तत्त्व पदार्थों का विशद बोध होता है। इससे सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है, और प्राप्त सम्यग्दर्शन निर्मल होता चलता है । सम्यग्दर्शन की अधिकाधिक निर्मलता चारित्र की अधिकाधिक निर्मलता की संपादक होती है । इसीलिए तो 'निशीथ-चूर्णि' शास्त्र में संमति-तर्क आदि के अध्ययनार्थ आवश्यकता पड़ने पर आधाकर्म आदि साधु-गोचरी-दोष के सेवन में चारित्र का भंग नहीं ऐसा विधान किया है । यह संमति-तर्क शास्त्र बढिया मनःसंशोधक व तत्त्व-प्रकाशक होने से इस पंचमकाल में एक उच्च निधि समान है । मुमुक्षु भव्य जीव इसका बार बार परिशीलन करें व इस हिन्दी विवेचन के कर्ता मुनिश्री अन्यान्य तात्त्विक शास्त्रों का ऐसा सुबोध विवेचन करते रहे यही शुभेच्छा ! वि.सं.२०४० आषाढ कृ.११ आचार्य विजय भुवनभानुसूरि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 ... 534