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और वादिदेव के 'स्याद्वादरत्नाकर' जैसे अनी परम्परा के सर्वसंग्राहक ग्रन्थ उपस्थित थे, फिर उन्होंने यह ग्रन्थ क्यों रचा ? इस सम्बन्ध में १० सुखलालजी कहते है कि “यह सब हेमचन्द्र के सामने था, पर उन्हें मालूम हुआ कि न्याय-प्रमाण षियक (इस) साहित्य में कुछ भाग तो ऐसा है, जो अति महत्त्व का होते हुए भी एक एक विषय की ही चर्चा करता है या बहुत संक्षिप्त है । दूसरा(कुछ)भाग ऐसा है कि जो सर्व बिषय संग्राही (तो है) पर वह उत्तरोत्तर इतना अधिक विस्तृत तथा शब्दक्लिष्ठ है कि सर्वसाधारण के अभ्यास का विषय नहीं बन सकता । इस विचार से हेमचन्द्रने एक ऐसा प्रमाण विषयक ग्रन्थ बनाना चाहा जो उनके समय तक चर्चित एक भी दार्शनिक विषय की चर्चा से खाली न रहे, फिर भी वह (सामान्य बुद्धि के पाठक के) पाठ्यक्रम योग्य मध्यम कद का हो । इसी दृष्टि में से 'प्रमाणमीमांसा' का जन्म हुआ ।
यह ठीक है कि प्रमाणमीमांसा सामान्य बौद्धिक स्तर के पाठकों के लिए मध्यम आकार का पाठ्यक्रम योग्य प्रान्थ है, किन्तु इससे उसके वैदुष्यपूर्ण और विशिष्ट होने में कोई आँच नहीं आती है । यद्यपि हेमचन्द्रने इस ग्रन्थ की रचना में अपने एव इतर परम्परा के पूर्वाचार्यों का उपयोग किया है फिर भी इस ग्रन्थ में यत्र तत्र अपने स्वतन्त्र चिन्तन और प्रतिभा का उपयोग भी उन्होंने किया है । अत: इसकी मौलिकता को नकारा नहीं जा सकता है । इस ग्रन्थ की रचना में अनेक स्थलों पर हेमचन्द्रने विषय को अपने पूर्वाचार्यों की अपेक्षा अधिक सुसंगत ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है और कारण ग्रन्थ में यत्र तत्र उनके वैदुष्य और स्वतन्त्र चिन्तन के दर्शन होते हैं, किन्तु उसं सबकी चर्चा इस लघु निबन्ध में कर पाना सम्भव नहीं है। पं. सुखलाल ने इस ग्रन्थ में हेमचन्द्र के वैशिष्टय की चर्चा अपने भाषा टिप्पणों में की है, जिन्हें वहाँ देखा जा सकता है । यहाँ तो हम मात्र प्रमाण लक्षण निरूपण में हेमचन्द्र के प्रमाणमीमांसा के वैशिष्ट्य तक ही अपने को सीमित रखेंगे। प्रमाणमीमांसा में प्रमाणलक्षण .. प्रमाणमीमांसा में हेमचन्द्रने प्रमाण का लक्षण 'सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणम्' कहकर दिया
है। यदि हम हेमचन्द्र द्वारा निरूपित इस प्रमाण लक्षण पर विचार करते हैं, तो यह पाते हैं कि यह प्रमाण लक्षण पूर्व में दिये गये प्रमाणलक्षणों से शाब्दिक दृष्टि से तो नितान्त भिन्न ही है । वस्तुतः शाब्दिक दृष्टि से इसमें न तो 'स्व-परप्रकाशत्व की चर्चा है, न .. बाधविवर्जित या अविसंवादित्व की चर्चा है । जबकि पूर्व के सभी जैन आचार्यों ने अपने . प्रमाण-लक्षाण निरूपण में इन दोनों की चर्चा अवश्य की है । इसमें 'अपूर्वतार को भी प्रमाण
के लक्षण के रूप में निरूपित नहीं किया गया है जिसकी चर्चा कुछ दिगम्बर जैनाचार्यों ने की है। न्यायावतार में प्रमाण के जो लक्षण निरूपित किये गये हैं, उसमें स्व-पर प्रकाशत्व और बाधविवर्जित होना ये दोनों उसके आवश्यक लक्षण बताये गये हैं। न्यायावतार की इस 3 वही, पृ. १६-१७ ४. वही, भाषा टिप्पणानि पृ. १ से १४३ तक ५. प्रमाण स्वपराभासि ज्ञान बाधविवर्जितम ।।
-न्यायावतार १