Book Title: Sambodhi 1988 Vol 15
Author(s): Ramesh S Betai, Yajneshwar S Shastri
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 193
________________ (अ) शौरसेनी के लिए : [1] पूर्वस्य पुरवः 8.4.270 ॥ पूर्व' शब्द का पुरव ।। [2] क्त्वा इय दूणौ 8.4.271 ॥ सं. भू. कृ. के इय एव दूण प्रत्यय ॥ (ब) मागधी के लिए :.[1] जो जः 8.4 294 मागध्यां ब्रजेः जकारस्स गो भवति ॥ वनादि ॥ [2] तिष्ठः चिष्ठ: 8.4.298 ॥ चिष्ठदि ॥ [3] अह वयमोः हगे 4.8.301 अहम् और वयम् का हगे होता । (क) पैशाची के लिए : हृदये यस्य प:॥ हितपक ।। (द) प्राकृत के लिए : [1] किराते चः 8.1.183 ।। चिलाओ ॥ [2] शङ्खले खः कः 8.1.189 ॥ सङ्कल ॥ 3] छागे लः 8.1.191 ॥ छालो, छाली ।। [4] स्फटिके लः 8.1.197 ।। फलिहो । [5] ककुदे हः 8.1.225 ॥ कह ।। [6] भ्रभरे सो वा 8.1.244 ॥ भसलो ।। [7] यष्ट्यां ल: 8.1.247 ॥ लठ्ठी ॥ आर्ष भाषा के उन्हों ने जितने भी उदाहरण दिये हैं उन सब के लिए अलग अलग सूत्र बनाने के लिए उनके पास काफी सामग्री थी । इसके अलावा प्रार'भिक न = न के लिए भी सविशेष कह सकते थे और ज्ञ, न्न, न्य = न्न के बारे में भी सूत्र दे सकते थे जैसा कि उन्हों ने मागधी के लिए सूत्र (8.4.293) दिया है । ये सब प्राचीन प्रवृत्ति के अन्तर्गत आते है। उन सब का मूर्धन्य ण या ण्ण बाद के काल की प्रवृत्ति है । आचार्य श्री हेमचन्द्र के ही व्याकरण-ग्रंथ में विभिन्न स्थलों पर (चतुर्थ अध्याय के घात्वादेश को छोड़कर ) जो उदाहरण दिये है उनमें शब्द के प्रारंभ में न कार 8 बार और ण कार एक बार यानि 8:1 के अनुपात में मिलता है अर्थात् प्रारभ में प्रायः न कार ही मिलता है । उसी प्रकार ज्ञ, न्य, न्न का न्न अधिक वार और पण कम बार मिलता है। इसी प्रकार क वर्ग एव च वर्ग के अनुनासिक स्व वर्ग के व्यजनों के साथ प्रयुक्त हो सकते हैं ऐसा भी सूत्र बनाया जा सकता था । _ अपने व्याकरण के प्रथम सूत्र की वृत्तिमें वे कहते है कि अनुनासिक संयुक्त रूप में आते ही हैं और पुनः 8.1.30 में ऐसा आदेश है कि संयुक्त रूप में आने पर उनका विल्कप से अनुस्वार हो जाता है । इस सूत्र के बावजूद भी उनके ग्रंथ में जितने भी

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