Book Title: Sambodhi 1988 Vol 15
Author(s): Ramesh S Betai, Yajneshwar S Shastri
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 201
________________ कोई विशिष्ट कर्मकाण्ड न होकर करुणा और लोकमगल से युक्त सदाचार का सामान्य आदर्श ही है । वे स्पष्टतः कहते है कि संयम, शील, और दया से रहित धम मनुष्य के बौद्धिक दिवालियेपन का ही सूचक है । वे आत्म-पीड़ा के साथ उद्घोष करते हैं कि यह बडे खेद की बात है कि जिसके मूल में क्षमा, शील और दया है, ऐसे कल्याणकारी धर्म को छोड़कर मन्दबुद्धि लोग हिंसा को भी धम मानते है । इस प्रकार हेमचन्द्र धामिक उदारता के कट्टर समर्थक होते हुए भी धर्म के नाम पर आयी हुई विकृतियों और चरित्रहीनता की वे समीक्षा करते है। सर्वधर्मसमभाव क्यो? हेमचन्द्र की दृष्टि में सर्वधर्म समभाव आवश्यकता क्यों है, इसका निर्देश प... बेचरदासजी ने अपने 'हेमचन्द्राचार्य' नामक ग्रन्थ में किया है । जयसिंह सिद्धराज की सभा में हेमचन्द्र ने सर्वधर्म समभाव के विषय में जो विचार प्रस्तुत किये थे वे प. बेचरदासजी के शब्दों में निम्न है-? "हेमचन्द्र कहते हैं कि प्रजा में यदि व्यापक देशप्रेम और शूरवीरता हो, किन्तु यदि धामिक उदारता न हो तो देश की जनता खतरे में ही होगी यह निश्चित ही समझना चाहिए । धार्मिक उदारता के अभाव में प्रेम संकुचित हो जाता है और शूरवीरता एक उन्मत्तता का रूप ले लेती है । ऐसे उन्मत्त लोग खून की नदियों को बहाने में भी नहीं चूकते और देश उजाड़ हो जाता है । सोमनाथ के पवित्र देवालय का नष्ट होना इसका ज्वलंत प्रमाण है । दक्षिण में धर्म के नाम पर जो संघर्ष हुए उनमें हजारों लोगों की जाने गयी । यह हवा अब गुजरात की और बहने लगी है, किन्तु हमें विचारना चाहिए कि यदि गजरात में इस धर्मान्धता का प्रवेश हो गया तो हमारी जनता और राज्य को विनष्ट होने में कोई समय नहीं लगेगा। आगे वे पुनः कहते हैं कि जिस प्रकार गुजरात के महाराज्य के विभिन्न देश अपनी विभिन्न भाषाओं, वेश-भूषाओं और व्यवसायों को करते हुए सभी. महाराजा सिद्धराज की आज्ञा के वशीभूत होकर कार्य करते हैं, उसी प्रकार चाहे हमारे धार्मिक क्रियाकलाप भिन्न हों फिर भी उनमें विवेकदृष्टि रखकर सभी को एक परमात्मा की आज्ञा के अनकल रहना चाहिए । इसी में देश और प्रजा का कल्याण है । यदि हम सहिष्णवृत्ति से न रहकर, धर्म के नाम पर, यह विवाद करेंगे कि यह धर्म झूठा है और यह धर्म सच्चा है, यह धर्म नया है यह धम' पुराना है, तो हम सब का ही नाश होगा। आज हम जिस धर्म का आचरण कर रहे हैं, वह कोई शुद्ध धम' न होकर शुद्ध धर्म को प्राप्त करने के लिए योग्यताभेद के आधार पर बनाये गये भिन्न-भिन्न साम्प्रदायिक बधारण मात्र है। हमें यह ध्यान रहे कि शास्त्रों के आधार पर लडा गया युद्ध तो कभी समाप्त हो जाता है, परन्तु शास्त्रों के आधार पर होने वाले संघर्ष' कभी समाप्त नहीं होते, अतः धर्म के नाम पर अहिंसा आदि पांच व्रतो का पालन हो, सन्तों का समागम हो, ब्राह्मण, श्रमण और मातापिता की सेवा हो, यदि जीवन में हम इतना ही पा सकें तो हमारी बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। 8-योगशास्त्र 1,40; 9-हेमचन्द्राचार्यः पृ. 53-56

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