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बहुत बाद की प्रवृत्ति है ( मेहेण्डले पृ. 274) । अर्धमागधी में यथा और यावत् अव्ययों में यह प्रवृत्ति मिलती है। ...
2 आर्षे दुगुल्ल' का उदाहरण सूत्र 8.1.119 में दिया गया है । यहाँ पर क के लोप के बदले में ग मिल रहा है हाला कि उदाहरण स्वरपरिवर्तन और व्यंजन द्वित्व का है । लेकिन यहाँ पर लोप के बदले क का घोष मिलता है । घोष की प्रवृत्ति लोप से प्राचीन है। अशोक के पूर्वी प्रदेश के शिलालेख में जौगड के पृथक् शिलालेख में एक बार लोक का लोग भी (2.7) मिलता है। खारधेल के शिलालेख में भी एक बार क का । ग उपासक = उवासग मिलता है।
3 इस के साथ साथ सूत्र न. 8.1.177 में मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों के प्रायः लोप का जो नियम दिया है, उसकी वृत्ति में भी क का ग होना दर्शाया गया है । उदाहरण - एगत्त', एगो, अमुगो, सावगो, आगरो, तित्थगरो 1 आगे कहां है आर्ष में ऐसे अनेक उदाहरण मिलेंगे । यह सब घोषीकरण की प्राचीन प्रवृत्ति है और बाद में अर्धमागधी के प्रभाव से अनेक ऐसे शब्द जैन महाराष्ट्री साहित्य में भी प्रचलित हो गये । मेहण्डले1 (पृ. 271) के अनुसार घोषीकरण की यह प्रवृत्ति पूर्व से अन्य क्षेत्रो में फैली है।
4 सूत्र न. 8.2.138 में उभय शब्द के लिए अवह और उवह दिये गये हैं और वृत्ति में कहा गया है ॥ आर्षे उभयो काल' ।। अर्थात् महाप्राण भ का ह में परिवतेन इस शब्द में नहीं है । प्राचीनतम प्राकृत भाषा में भ का ह में परिवर्तन प्रायः होता हो ऐसा : नहीं है । शुबिंग महोदय, शान्टियर और आल्सडर्फ द्वारा संपादित प्राचीन आगम ग्रंथो में यह लाक्षणिकता मिलती है । -5 मध्यवर्ती न =न या
8.1.228 सूत्र के अनुसार मध्यवती न का ण होता है । परंतु फिर वृत्ति में कहा गया है कि आर्षे आरनाल, अनिलो, अनलों इत्याद्यपि ।
- मध्यवर्ती न के ण में बदलने की प्रवृत्ति शिलालेखों के अनुसार पश्चात् कालीन है और यह पूर्वी भारत की प्रवृत्ति नहीं थी।
6 सूत्र न. 8.1.254 में रकार के ल कार में परिवर्तन वाले लगभग 25 उदाहरण पूर्ति में दिये गये हैं । अन्त में दुवालसङ्गे इत्याद्यपि । अशोक के शिलालेखों में दुवाडस और दुवाळस (द्वादश) शब्द मिलते हैं। बाद में है और ळ कार ल में बदल जाता है। र के ल में बदलने की प्रवृत्ति महाराष्टी या शौरसेनी प्राकृत की नहीं है। यह तो मागधी की और पूर्वी भारत की प्रवृत्ति है । जो भी शब्द इधर दिये गये हैं वे प्राय: अर्धमागधी से ही अन्य प्राकृतों में प्रचलित होने की अधिक संभावना है।
7 सूत्र न.8.1.57 की वृत्ति में मणोसिला (मनः शिला और अइमुत्तय अतिमुक्तकम्) आष' के लिए दिये गये हैं जबकि प्राकृत के लिए मणसिला और जइमुतय दिये गये हैं। 1 Historical Grammar of Incriptional Prakrit 1948-p..271