Book Title: Sambodhi 1988 Vol 15
Author(s): Ramesh S Betai, Yajneshwar S Shastri
Publisher: L D Indology Ahmedabad

Previous | Next

Page 187
________________ आचार्य हेमचन्द्रने अपने प्रमाण-लक्षण निरूपण में 'स्व' पद क्यों नहीं रखा, इसका उत्तर स्वयं उन्होंने प्रथम अध्याय के प्रथम आहिक के चतुर्थ पद की स्वोपज्ञ टीका में दिया है उन्होंने बताया है कि ज्ञान लो स्व-प्रकाश ही है, 'पर'का व्यावर्तक नहीं होने से लक्षण में इसका प्रवेश अनावश्यक है।12 पं. सुखलालजी के अनुसार ऐसा करके उन्होंने एक ओर अपने विचार स्वातन्त्र्य को स्पष्ट किया वहीं दूसरी ओर पूर्वाचार्यों के मत का खण्डन नहीं करके, 'स्व' पद के प्रयोग की उनकी दृष्टि दिखाकर उनके प्रति आदर भी व्यक्त किया । ज्ञान के स्वभावतः स्वप्रकाशक होने से उन्होंने अपने प्रमाण-लक्षण में 'स्व' पद नहीं रखा ।13 इसी प्रकार आचार्य हेमचन्द्रने अपने प्रमाण-लक्षण में 'अनधिगत' या अपूर्व पद क्यों नहीं रखा ? इसका उत्तर भी प्रमाणमीमांसा में धारावाहिक ज्ञान के प्रामाण्य और अप्रमाण्य की चर्चा में मिल जाता है । भारतीय दर्शन में धारावाहिक ज्ञान के प्रामाण्य और अप्रमाण्य को लेकर दो दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं । एक ओर न्याय-वैशेषिक और मीमांसकों के प्रभाकर एवं भाट्ट संप्रदाय काल-कलाभान सम्बन्धी कुछ सूक्ष्म मतभेदों को छोड़कर सामान्यतया धारावाहिक ज्ञान के प्रामाण्य को स्वीकार करते हैं। दूसरी ओर बौद्ध परम्परा सामान्यव्यक्ति(प्रमाता)के ज्ञान में सूक्ष्मकाल-भेद का ग्रहण नहीं होने से धारावाहिक ज्ञान को अप्रमाण मानती है । यद्यपि कुमारिल भट्टकी परम्परा भी अपने प्रमाण-लक्षण में अपूर्व पद रखने के कारण सूक्ष्मकाल-कला का भान मानकर ही उसमें प्रामाण्य का उपपादन करती है। इसी प्रकार बौद्ध दार्शनिक अचेंट ने अपने हेतुबिन्दु की टीकामें सूक्ष्मकाल-कला के भान के कारण योगियों के धारावाहिक ज्ञान को प्रमाण माना है ।14 जहाँ तक जैनों का प्रश्न है, सामान्यतया दिगम्बर आचार्यों ने अपने प्रमाण-लक्षण में 'अपूर्व' पद को स्थान दिया है, अत: उनके अनुसार धारावाहिक ज्ञान, जब क्षण भेदादि विशेष का बोध करता हो और विशिष्टप्रमाजनक हो तभी प्रमाण कहा है। इसके विपरीत श्वेताम्बर पर परा के आचार्य अपने प्रमाण-लक्षण में 'अपूर्व' पद नहीं रखते हैं और स्मृति के समान धारावाहिक ज्ञान को भी प्रमाण माना है। श्वे. आचार्यो में हेमचन्द्रने अपने प्रमाण-लक्षण में 'अपूर्व' पद क्यों नहीं रखा इसका उत्तर भी उनकी प्रमाण मीमांसा में मिल जाता है । आचार्य स्वय' ही स्वोपज्ञ टीका में इस सम्बन्ध में पूर्व पक्ष की उदभावना करके उत्तर देते है । प्रतिपक्ष का कथन है कि धारावाहिक स्मृति आदि ज्ञान अधिगतार्थक पूर्वार्थक है और इन्हे सामान्यतया अप्रमाण समझा जाता है. यदि तुम भी इन्हें अप्रमाण मानते हो (तुम्हारा) सम्यगर्थ निर्णयरूप लक्षण अतिव्याप्त हो जाता है अत: अनधिगत या अपूर्व पद रख कर उसका निरास क्यों नहीं करते हो ? प्रतिपक्ष के इस प्रश्न का उत्तर आचार्य हेमचन्द्र ने धारावाहिक ज्ञान और स्मृति को प्रमाण मानकर ही दिया है।15 क्योंकि यदि धारावाहिक ज्ञान और स्मृति प्रमाण है तो फिर प्रमाण के लक्षण में अपूर्व या अनधिगत १३ वही भाषा टिप्पणानि पृ. ११ १४. देखें-वही पृ. १२-13 १५. वही-मूलग्रन्थ एवं स्वोपन टीका १/१/४ पृ०४-५

Loading...

Page Navigation
1 ... 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222