Book Title: Sagar Jain Vidya Bharti Part 2
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 59
________________ 54 : प्रो. सागरमल जैन महाभूतों से होता है । आत्मा के असत् अथवा अकर्ता होने से हिंसा आदि कार्यों में पुरुष दोष का भागी नहीं होता क्योंकि सभी कार्य भूतों के हैं । सम्भवतः यह विचारधारा सांख्य दर्शन का पूर्ववर्ती रूप है। इसमें पंचमहाभूतवादियों की दृष्टि से आत्मा को असत् और पंचमहाभूत और षष्ठ आत्मवादियों की दृष्टि से आत्मा को अकर्ता कहा गया है । सूत्रकृतांग इनके अतिरिक्त ईश्वर कारणवादी और नियतिवादी जीवन दृष्टियों को भी कर्म - सिद्धान्त का विरोधी होने के कारण मिथ्यात्व का प्रतिपादक ही मानता है । इस प्रकार 'ऋषिभाषित' के देशोत्कल और 'सूत्रकृतांग के पंचमहाभूत एवं षष्ठ आत्मवादियों के उपरोक्त विवरण में पर्याप्त रूप से निकटता देखी जा सकती है। जैनों की मान्यता यह है कि वे सभी विचारक मिथ्यादृष्टि हैं जिनकी दार्शनिक मान्यताओं में धर्माधर्म व्यवस्था या कर्म सिद्धान्त की अवधारणा नहीं होती है। हम यह देखते हैं कि यद्यपि 'सूत्रकृतांग में शरीर - आत्मवाद की स्थापना करते हुए देह और आत्मा भिन्न-भिन्न हैं, इस मान्यता का तार्किक रूप से निरसन किया गया है किन्तु यह मान्यता क्यों समुचित नहीं है इस सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कोई भी तर्क नहीं दिये गये हैं । 'सूत्रकृतांग', देहात्मवाद दृष्टिकोण के समर्थन में तो तर्क देता है किन्तु उसके निरसन में कोई तर्क नहीं देता । 'राजप्रश्नीय सूत्र' में चार्वाक मत का प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा 23 चार्वाक दर्शन के देहात्मवादी दृष्टिकोण के समर्थन में और उसके खण्डन के लिए तर्क प्रस्तुत करने वाला सर्वप्रथम राजप्रश्नीय सूत्र है । यही एक मात्र ऐसा प्राकृत आगम ग्रन्थ है जो चार्वाक दर्शन के उच्छेदवाद और तज्जीवतच्छरीरवाद के पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों के सन्दर्भ में अपने तर्क प्रस्तुत करता है । 'राजप्रश्नीय सूत्र' में चार्वाकों की इन मान्यताओं के पूर्व पक्ष को और उनका खण्डन करने वाले उत्तर पक्ष को निम्न रूप में प्रस्तुत किया गया है. -- 1. राजा पएसी कहता है, हे ! केशीकुमार श्रमण ! मेरे दादा अत्यन्त अधार्मिक थे । आपके कथनानुसार वे अवश्य ही नरक में उत्पन्न हुए होंगे। मैं अपने पितामह का अत्यन्त प्रिय था, अतः पितामह को आकर मुझसे यह कहना चाहिए कि हे पौत्र ! मैं तुम्हारा पितामह था और इसी से यंविया ( श्वेताम्बिका) नगरी में अधार्मिक यावत् प्रजाजनों से राजकर लेकर भी यथोचित रूप में उनका पालन-रक्षण नहीं करता था। इस कारण बहुत एवं अतीव कलुषित पापकर्मों का संचय करके मैं नरक में उत्पन्न हुआ हूँ । किन्तु हे पौत्र ! तुम अधार्मिक नहीं होना, प्रजाजनों से कर लेकर उनके पालन-रक्षण में प्रमाद मत करना और न बहुत से मलिन पाप कर्मों का उपार्जन - संचय ही करना । देहात्मवादियों के इस तर्क के प्रति - उत्तर में केशीकुमार श्रमण ने निम्न समाधान प्रस्तुत किया हे राजन! जिस प्रकार अपने अपराधी को तुम इसलिए नहीं छोड़ देते हो कि वह जाकर अपने पुत्र - मित्र और जाति जनों को यह बताये कि मैं अपने पाप के कारण दण्ड भोग रहा हूँ, तुम ऐसा मत करना। इसी प्रकार नरक में उत्पन्न तुम्हारे पितामह तुम्हें प्रतिबोध देने के लिए आना चाहकर भी यहाँ आने में समर्थ नहीं हैं। नारकीय जीव चार कारणों से मनुष्य लोक में नहीं आ सकते सर्वप्रथम तो उनमें नरक से निकल कर मनुष्य लोक में आने -- Jain Education International -- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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