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प्रो. सागरमल जैन
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उनके प्रति आत्मीयता का भाव हो।
सामान्य रूप से इस आत्मीयता को रागात्मकता समझने की भूल की जाती है। किन्तु आत्मीयता एवं रागात्मकता में अन्तर है। रागात्मकता सकाम होती है उसके मूल में स्वार्थ का तत्त्व विद्यमान होता है, वह प्रत्युपकार की अपेक्षा रखती है, जबकि आत्मीयता निष्काम होती है, उसमें मात्र परार्थ की वृत्ति होती है। यही कारण था कि प्रश्नव्याकरणसूत्र में अहिंसा के जो विविध नाम दिये गये उसमें रति को भी स्थान दिया गया। यहाँ रति का अर्थ वासनात्मक प्रेम या द्वेषमूलक राग-भाव नहीं है यह निष्काम प्रेम है। वस्तुतः जब आत्मीयता का भाव प्रत्युपकार की अपेक्षा न रखता हो और वह सार्वभौम हो, तो आत्मीयता कहलाता है। वस्तुतः जब तक अन्य जीवों के साथ समानता की अनुभूति, उनके जीवन जीने के अधिकार के प्रति सम्मान-वृत्ति
और उनकी पीड़ाओं का स्व-संवेदन नहीं होता तब तक अहिंसक चेतना का उद्भव भी नहीं होता। अहिंसक चेतना का मूल आधार आत्मीयता की अनुभूति है। वह सार्वभौमिक प्रेम है। वह ऐसा राग-भाव जिसमें देष का कोई अंश ही नहीं होता है। जिसमें संसार के समस्त प्राणी "स्व" ही होते हैं, "पर" कोई भी नहीं होता है। वस्तुतः ऐसा राग, राग ही नहीं होता है। राग सदैव द्वेष के सहारे जीवित रहता है। द्वेष, स्वार्थ और प्रत्युपकार की आकांक्षा से रहित जो राग-भाव है वह सार्वभौमिक प्रेम होता है, वही आत्मीयता है और यह आत्मीयता ही सामाजिकता का आधार है।
घृणा, विद्वेष और आक्रामकता की वृत्तियाँ सदैव ही सामाजिकता की विरोधी है। वे हिंसा का ही दूसरा रूप है। ये वृत्तियाँ जब भी बलवती होगी, सामाजिकता की भावना ही समाप्त होगी, समाज ढह जावेगा। समाज जब भी खड़ा होगा तब वह न तो हिंसा के आधार पर खड़ा होगा और न मात्र निषेधमूलक निरपेक्ष अहिंसा के आधार पर । वह हमेशा सकारात्मक अहिंसा के आधार पर ही खड़ा होगा। यद्यपि हमें यहाँ स्मरण रखना चाहिये कि जिस प्रकार सकारात्मक अहिंसा के सम्पादन में निरपेक्ष-अहिंसा या पूर्ण-अहिंसा का परिपालन सम्भव नहीं है, उसी प्रकार सामाजिक जीवन में भी निरपेक्ष अहिंसा या पूर्ण अहिंसा परिपालन सम्भव नहीं है। समाज जीवन का आधार जो सकारात्मक अहिंसा है, वह सापेक्ष अहिंसा या सापवादिक अहिंसा है। समाज-जीवन के लिए समाज के सदस्यों के हितों के संरक्षण का प्रश्न मुख्य है और जहाँ अस्तित्त्व की सुरक्षा और हितों के संरक्षण का प्रश्न होता है वहाँ निरपेक्ष अहिंसा संभव नहीं होती। समाज-जीवन में हितों में टकराहट स्वाभाविक है। अनेक बार एक का हित, दूसरे के अहित पर ही निर्भर करता है। ऐसी स्थिति में समाज जीवन में या संघीय जीवन में पूर्ण अहिंसा का आदर्श साकार नहीं हो पाता है, उसमें अपवाद को मान्य करना ही होता। जब वैयक्तिक हितों और सामाजिक हितों में संघर्ष की स्थिति हो तो हम पूर्ण अहिंसा के आदर्श की दुहाई देकर तटस्थ दृष्टा नहीं बने रह सकते हैं। जब वैयक्तिक और सामाजिक हितो में संघर्ष हो तो हमें समाज हित में वैयक्तिक हितों का बलिदान करना ही होगा। फिर चाहे वे हित हमारे स्वयं के हो या किसी अन्य के। सकारात्मक अहिंसा का सिद्धान्त हमें यही सीखाता है कि हम किसी महान हित के लिए क्षुद्र हितों को बलिदान करना सीखें। समाज-जीवन में ऐसे अक्सर
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