Book Title: Sagar Jain Vidya Bharti Part 2
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 137
________________ 132 : श्रमण/अप्रैल-जून/1995 3. Thus to save a life it may not only be allowable but a duty to steal. Mill -- Utilitarianism, Chap. 5, p. 95 (15th Ed. ) नैतिक जीवन के सिद्धान्त ( हिन्दी अनुवाद), पृ0 59 5. विशेष विवेचन के लिये देखिए -- तिलक का गीता रहस्य, कर्म जिज्ञासा, अध्याय 1 । अनेकान्तोप्यनेकान्तः प्रमाण-नय साधनात्। अनेकान्तः प्रमाणात् ते तदेकान्तोऽर्पितात् नयात्।। - स्वयंभूस्तोत्र, अरजिनस्तवन-18 7. गहना कर्मणो गतिः -- गीता, 4/17 8. (क) जे आसवा ते परिस्सवा जे परिस्सवा ते आसवा । -- आचारांग, 1/4/2/130 (ख) य एवासवा कर्मबन्धस्थानानि त एव परिसवा कर्मनिर्जरा स्पदानि । __ -- आचार्य शीलांक आचारांग टीका 1/4/2/130 9. यस्मिन् देशे काले यो धर्मों भवति स निमित्तान्तरेषु अधर्मों भवत्येव ।। - उद्धृत अमर भारती (मई 1964), पृ० 15 10. Every act has of course, many sides, many relations, many points of view from which it may be regarded, and so many qualities there is not the smallest difficulty in exhibiting it as the realization of either right or wrong. No act in the world is without some side capable of being subsumed under a good rule. ___ --Ethical Studies (1962), p. 196. 11. आचारांगसूत्र हिन्दी टीका, प्रथम भाग, पृ0 378, संस्करण 1963 12. उत्पद्यते हि सावस्था देशकालामयान् प्रति। यस्यामकार्य कार्य स्यात् कर्म कार्य च वर्जयेत ।। ___ - अष्टकप्रकरण, 27/5 टीका (उद्धृत अमर भारती, फरवरी, 1965) 13. न वि किंचि अणुण्णातं, पडिसिद्धं वावि जिणवरिंदेहि। तित्थगराणं आणा, कज्जे सच्चेण होयव्वं ।। - उपदेशपद, 779 14. देशं कालं पुरुषमवस्थामुपघात शुद्धपरिणामान्। प्रसमीक्ष्य भवति कल्प्यं, नैकान्तात्कल्प्यते कल्प्यम्।।146 _ -- उमास्वाति प्रशमरति-146 (अमर भारती, फरवरी 1965 ) 15. अमर भारती, फरवरी, 1965, पृ0 5 16. वही, मार्च 1965, पृ0 38 17. ए0 बेडले -- एपिकल स्टडीज, पृ0 189 18. एस धम्मे सुद्धे नितिए सासए। -- आचारांग 1/4/1/127 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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