________________
सदाचार के शाश्वत मानदण्ड और जैनधर्म : 137
मानदण्ड की बात करते हैं तो हमारी दृष्टि व्यक्ति के आचरण के बाह्य पक्ष पर अथवा उस आचरण का दूसरों पर क्या प्रभाव या परिणाम होता है, इस बात पर अधिक होती है। सदाचार या दुराचार का प्रश्न केवल कर्ता के आन्तरिक मनोभावों या वैयक्तिक जीवन से तो सम्बन्धित नहीं है, वह आचरण के बाहय प्रारूप तथा हमारे सामाजिक जीवन में उस आचरण के परिणामों पर भी विचार करता है। यहाँ हमें सदाचार और दुराचार की व्याख्या के लिए कोई ऐसी कसौटी खोजनी होगी जो आचार के बाह्य पक्ष अथवा हमारे व्यवहार के सामाजिक पक्ष को भी अपने में समेट सके। सामान्यतया भारतीय चिन्तन में इस सम्बन्ध में एक सर्वमान्य दृष्टिकोण यह है कि परोपकार ही पुण्य है और पर-पीड़ा ही पाप है। तुलसीदास ने इसे निम्न शब्दों में प्रकट किया है --
"परहित सरिस धरम नहीं भाई। पर-पीड़ा सम नहीं अधमाई।।"
अर्थात् वह आचरण जो दूसरों के लिए कल्याणकारी या हितकारी है सदाचार है, पुण्य है और जो दूसरों के लिए अकल्याणकर है, अहितकर है, पाप है, दुराचार है। जैनधर्म में सदाचार के एक ऐसे ही शाश्वत मानदण्ड की चर्चा हमें आचारांग-सूत्र में उपलब्ध होती है। वहाँ कहा गया है -- "भूतकाल में जितने अर्हत हो गये हैं, वर्तमान काल में जितने अर्हत हैं और भविष्य में जितने अर्हत होंगे वे सभी यह उपदेश करते हैं कि सभी प्राणी, सभी भूतों, सभी जीवों और सभी सत्वों को किसी प्रकार का परिताप, उग या दुःख नहीं देना चाहिए, न किसी का हनन करना चाहिए। यही शुद्ध नित्य और शाश्वत धर्म है।" किन्तु मात्र दूसरे की हिंसा नहीं करने के रूप में अहिंसा के निषेधात्मक पक्ष को या दूसरों के हित-साधन को ही सदाचार की कसौटी नहीं माना जा सकता है। ऐसी अवस्थाएँ तब सम्भव है कि जबकि मेरे असत्य सम्भाषण एवं अनैतिक आचरण के द्वारा दूसरों का हित-साधन होता हो, अथवा कम से कम किसी का अहित न होता हो, किन्तु क्या हम ऐसे आचरण को सदाचार कहने का साहस कर सकेंगे ? क्या वेश्यावृत्ति के माध्यम से अपार धनराशि एकत्र कर उसे लोकहित के लिए व्यय करने मात्र से कोई स्त्री सदाचारी की कोटि में आ सकेगी ? क्या यौन-वासना की संतुष्टि के वे रूप जिसमें किसी भी दूसरे प्राणी की प्रकट में हिंसा नहीं होती है, दुराचार की कोटि में नहीं आवेंगे ? सूत्र-कृतांग में सदाचारिता का एक ऐसा ही दावा अन्य तैथिकों द्वारा प्रस्तुत भी किया गया था, जिसे भगवान महावीर ने अमान्य कर दिया था। क्या हम उस व्यक्ति को, जो डाके डालकर उस सम्पत्ति को गरीबों में वितरित कर देता है, सदाचारी मान सकेंगे ? एक चोर और एक सन्त दोनों ही व्यक्ति को सम्पत्ति के पाश से मुक्त करते है फिर भी दोनों समान कोटि के नहीं माने जाते। वस्तुतः सदाचार या दुराचार का निर्णय केवल एक ही आधार पर नहीं होता है। उसमें आधरण का प्रेरक आन्तरिक पक्ष अर्थात् कर्ता की मनोदशा और आचरण का बाह्य परिणाम अर्थात् सामाजिक जीवन पर उसका प्रभाव दोनों ही विचारणीय है। आचार की शुभाशुभता, विचार पर और विचार या मनोभावों की शुभाशुभता, स्वयं व्यवहार पर निर्भर करती है। सदाचार या दुराचार का मानदण्ड तो ऐसा चाहिए जो इन दोनों को समाविष्ट कर सके।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org