Book Title: Sagar Jain Vidya Bharti Part 2
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 157
________________ 152 : श्रमण / अप्रैल-जून/ 1995 उत्तराध्ययनसूत्र में लेश्याओं के स्वरूप का निर्वचन वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनोभाव, कर्म आदि अनेक पक्षों आधार पर हुआ है, लेकिन हम अपने विवेचन को लेश्याओं के भावात्मक पक्ष तक सीमित रखना उचित समझेंगे। मनोदशाओं में संक्लेश की न्यूनाधिकता अथवा मनोभावों की अशुभत्व से शुभत्व की ओर बढ़ने की स्थितियों के आधार पर ही उनके विभाग किये गये हैं । अप्रशस्त और प्रशस्त इन द्विविध मनोभावों के उनकी तरतमता के आधार पर छः भेद वर्णित हैं - अप्रशस्त मनोभाव 1. कृष्ण लेश्या - तीव्रतम अप्रशस्त मनोभाव 2. नील लेश्या - तीव्र अप्रशस्त मनोभाव 3. कापोत लेश्या - मंद अप्रशस्त मनोभाव प्रशस्त मनोभाव 4. तेजोलेश्या - मंद प्रशस्त मनोभाव 5. पद्मलेश्या - तीव्र प्रशस्त मनोभाव 6. शुक्ललेश्या - तीव्रतम प्रशस्त मनोभाव लेश्याएं एवं व्यक्तित्व का श्रेणी - विभाजन लेश्याएं मनोभावों का वर्गीकरण मात्र नहीं है, वरन् चरित्र के आधार पर किये गये व्यक्तित्व के प्रकार भी हैं। मनोभाव अथवा संकल्प आन्तरिक तथ्य ही नहीं है, वरन् वे क्रियाओं के रूप में बाह्य अभिव्यक्ति भी चाहते हैं । वस्तुतः संकल्प ही कर्म में रूपान्तरित होते हैं। ब्रेडले का यह कथन उचित है कि कर्म संकल्प का रूपान्तरण है। मनोभूमि या संकल्प व्यक्ति के आचरण का प्रेरक सूत्र है, लेकिन कर्म - क्षेत्र में संकल्प और आचरण दो अलग-अलग तत्त्व नहीं रहते हैं। आचरण से संकल्पों की मनोभूमिका का निर्माण होता है और संकल्पों की मनोभूमिका पर ही आचरण स्थित होता है। मनोभूमि और आचरण ( चरित्र ) का घनिष्ठ सम्बन्ध है। इतना ही नहीं, मनोवृत्ति स्वयं में भी एक आचरण है। मानसिक कर्म भी कर्म ही है । अतः जैन विचारकों ने जब लेश्या परिणाम की चर्चा की तो वे मात्र मनोदशाओं की चर्चाओं तक ही सीमित नहीं रहे, वरन् उन्होंने उस मनोदशा से प्रत्युत्पन्न जीवन के कर्म क्षेत्र में घटित होने वाले बाह्य व्यवहारों की चर्चा भी की और इस प्रकार जैन लेश्या सिद्धान्त व्यक्तित्व के वर्गीकरण का व्यवहारिक सिद्धान्त बन गया। जैन विचारकों ने इस सिद्धान्त के आधार पर यह बताया कि मनोवृत्ति एवं आचरण की दृष्टि से व्यक्ति का व्यक्तित्व या तो शुभ ( नैतिक ) होगा या अशुभ (अनैतिक ) । इन्हें धार्मिक और अधार्मिक अथवा शुक्ल-पक्षी और कृष्ण - पक्षी भी कहा गया है। वस्तुतः एक वर्ग वह है जो नैतिकता या शुभत्व की ओर उन्मुख है। दूसरा वर्ग वह है जो अनैतिकता या अशुभत्व की ओर उन्मुख है। इस प्रकार गुणात्मक अन्तर के आधार पर व्यक्तित्व के ये दो प्रकार बनते हैं। लेकिन जैन विचारक मात्र गुणात्मक वर्गीकरण से सन्तुष्ट नहीं हुए और उन्होंने उन दो गुणात्मक प्रकारों को तीन-तीन प्रकार के मात्रात्मक अन्तरों (जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट ) के आधार पर छः भागों में विभाजित किया । जैन लेश्या सिद्धान्त का षट् - विध वर्गीकरण इसी आधार पर हुआ है। जैन विचारकों ने इन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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