Book Title: Sagar Jain Vidya Bharti Part 2
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 181
________________ 176 : श्रमण / अप्रैल-जून/ 1995 रचनाओं का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया गया है। इसमें लगभग ४०० जैन कवियों और उनकी लगभग १००० कृतियों का परिचय दिया गया है। ग्रन्थ के आरम्भ में ३० पृष्ठों के उपोद्घात में कुछ मुख्य विषयों, यथा १७वीं शताब्दी की राजनीतिक स्थिति, मुगल साम्राज्य की स्थापना, अकबर का शैशव, साम्राज्य विस्तार, शासन-व्यवस्था, आर्थिक-सामाजिक स्थिति, शिक्षा, अकबर की धार्मिक नीति, हीर विजय सूरि और सम्राट अकबर, जहाँगीर का जैनधर्म से सम्बन्ध, सांस्कृतिक समन्वय, कला, साहित्य आदि पर प्रकाश डाला गया है। जैन कवियों का हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में जो अवदान है वह अभी हिन्दी के विद्वानों को प्रायः अज्ञात ही रहा है। प्रस्तुत कृति के अवलोकन से वे हिन्दी साहित्य में जैन कवियों के अवदान का सम्यक् मूल्यांकन कर सकेंगे, ऐसा विश्वास है । प्रस्तुत कृति के लेखक जो हिन्दी के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान हैं, ने अत्यन्त परिश्रमपूर्वक इन कवियों की कृतियों के उल्लेख के साथ उनका मूल्यांकन प्रस्तुत किया है। कृति श्रेष्ठ एवं पुस्तकालयों के लिए संग्रहणीय है । पुस्तक मातृकापदशृंगाररसकलितगाथाकोश लेखक - आचार्य वीरभद्र, अनुवादक - श्री भँवरलाल जी नाहता सम्पादक डॉ० सागरमल जैन, आकार डिमाई पेपरबैक - प्रथम संस्करण - १६६४, पृष्ठ- १८+७, मूल्य रु० १५.०० मात्र । जैन विद्वानों ने न केवल संस्कृत में अपितु प्राकृत एवं मरुगुर्जर में भी श्रृंगाररसपरक अनेक कृतियों का सृजन किया है। अनेक कृतियों में शृंगाररस का सरस वर्णन है, फिर भी निवृत्तिमार्गी अपनी मूल परम्परा के अनुरूप जैन कवियों ने शृंगारपरक रचनाओं का उपसंहार सदैव शान्तरस ( वैराग्य ) में ही किया है । आचार्य वीरभद्र की 'मातृकापदशृंगाररसकलितगाथाकोश' विशुद्ध रूप से एक शृंगाररसपरक रचना है। किन्तु जैसा कि जैन कवियों ने शृंगार की अभिव्यक्ति में भी सदैव एक मर्यादा का अनुपालन किया है, प्रस्तुत कृति में भी आचार्य वीरभद्र ने मर्यादा अतिक्रमण को वर्ज्य मानते हुए न व्यभिचार, न अभिसार मात्र विरह व्यथा का वास्तविक चित्र प्रस्तुत किया है। इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद अभी तक अनुपलब्ध था । जैन विद्या के मूर्धन्य विद्वान श्री भँवरलाल जी ने एक विस्तृत भूमिका सहित इसका लिप्यन्तरण एवं अनुवाद किया। अनुवाद अत्यन्त सजीव व बोधगम्य है । कृति उत्तम एवं संग्रहणीय है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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