Book Title: Sagar Jain Vidya Bharti Part 2
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 168
________________ जैन धर्म का लेश्या-सिद्धान्त : एक विमर्श : 163 उत्तराध्ययनसूत्र29 में नाम, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, परिणाम, लक्षण, स्थान, स्थिति, गति और आयु इन ग्यारह विचार बिन्दुओं (द्वारों) से उस पर विचार किया गया है। जबकि भगवती एवं प्रज्ञापनासूत्र30 में निम्न पन्द्रह विचार बिन्दुओं (द्वारों) से लेश्या की चर्चा की गयी है। ___ 1.परिणाम, 2. वर्ण, 3. रस, 4. गंध, 5. शुद्ध, 6. अप्रशस्त, 7. संक्लिष्ट, 8. उष्ण, 9. गति, 10. परिणाम, 11. प्रदेश, 12. वर्गणा, 13. अवगाहना, 14. स्थान एवं 15. अल्पबहुत्व। __इसके पश्चात् दिगम्बर परम्परा में अकलंक ने तत्त्वार्थराजवार्तिक31 में लेश्या की विवेचना के निम्न सोलह अनुयोगों की चर्चा की है-- 1. निर्देश, 2. वर्ण, 3. परिणाम, 4. संक्रम, 5. कर्म, 6. लक्षण, 7. गति 8. स्वामित्व, 9. संख्या, 10. साधना, 11. क्षेत्र 12. स्पर्शन, 13. काल, 14. अन्तर , 15. भाव और 16. अल्प बहुत्व। अकलंक के पश्चात गोम्मटसार के जीवकाण्ड32 में भी लेश्या की विवेचना के उपर्युक्त 16 ही अधिकारों का उल्लेख हुआ है। विस्तारभय से हम यहाँ इन सभी की चर्चा नहीं कर रहे हैं किन्तु तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट होता है कि ऐतिहासिक दृष्टि से लेश्या का प्राचीन होने पर भी इसमें क्रमिक विकास देखने को मिलता है। इसकी विस्तृत चर्चा कुo ( डॉ० ) शान्ता जैन ने अपने शोध-प्रबंध में की है। आधुनिक विज्ञान और लेश्या सिद्धान्त हम देखते हैं कि ई० पू० पाँचवी शताब्दी से ई० पू० दशवीं शताब्दी तक लेश्या सम्बन्धी चिन्तन में जो क्रमिक विकास हुआ था, वह 11-12वीं शताब्दी के बाद प्रायः स्थिर हो गया था। किन्तु आधुनिक युग में मनोविज्ञान, रंग-मनोविज्ञान, रंग-चिकित्सा आदि ज्ञान की नयी विधाओं के विकास के साथ जैन दर्शन की लेश्या संबंधी विवेचनाओं को एक नया मोड़ प्राप्त हुआ। जैन दर्शन के लेश्या सिद्धान्त को आधुनिक विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करने का मुख्य श्रेय आचार्य तुलसी के विद्वान शिष्य युवाचार्य महाप्रज्ञ जी को जाता है। उन्होंने आधुनिक व्यक्तित्व मनोविज्ञान के साथ-साथ आभामण्डल, रंग-मनोविज्ञान, रंग-चिकित्सा आदि अवधारणाओं को लेकर 'आभामण्डल जैनयोग आदि अपने ग्रंथ में इसका विस्तार से वर्णन किया है। प्राचीन और अर्वाचीन अवधारणाओं को लेकर कु० डॉ० शान्ता जैन ने लेश्या का मनोवैज्ञानिक अध्ययन नामक एक शोध-प्रबन्ध लिखा है जिसमें लेश्या के विभिन्न पक्षों की चर्चा की गयी है। उन्होंने अपने इस शोध-ग्रन्थ में लेश्या का सैद्धान्तिक पक्ष, मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में लेश्या, रंगो की मनोवैज्ञानिक प्रस्तुति, लेश्या और आभामण्डल, व्यक्तित्व और लेश्या, सम्भव है व्यक्तित्व बदलाव और लेश्या ध्यान, रंगध्यान और लेश्या आदि लेश्या के विभिन्न आयामों पर गम्भीरता से विचार किया है। वस्तुतः उनका यह ग्रन्थ लेश्या की प्राचीन अवधारणा की आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के सन्दर्भ में एक नवीन व्याख्या है और भावी लेश्या सम्बन्धी अध्ययनों के लिए मार्ग प्रदर्शक है। इसके अध्ययन से यह प्रतिफलित होता है कि भारतीय चिन्तन की प्राचीन अवधारणाओं को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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