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164 : श्रमण/अप्रैल-जून/1995
आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के सन्दर्भ में किस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है और उनकी समकालिक प्रासंगिकता को कैसे सिद्ध किया जा सकता है। आशा है आधुनिक विज्ञान और मनोविज्ञान के अध्येता इस दिशा में अपने प्रयत्नों को आगे बढ़ायेंगे और इस प्रकार के अध्ययन का जो द्वार युवाचार्य महाप्रज्ञ और डॉ० शान्ता जैन ने उद्घाटित किया है, उसे नया आयाम प्रदान करेंगे और साथ ही मानव के चारित्रिक बदलाव और आध्यात्मिक विशुद्धि की दिशा में सहयोगी बनेंगे। आज पर्यावरण की विशुद्धि पर ध्यान तो दिया जाने लगा है किन्तु इस भौतिक पर्यावरण की अपेक्षा जो हमारा मनोदैहिक और मानसिक पर्यावरण है और जिसे जैन परम्परा में लेश्या कहा गया है उसे भी शुद्ध रखने की आवश्यकता है। मैं समझता हूँ कि लेश्या की अवधारणा हमें यही इंगित करती है कि हम संक्लिष्ट मानसिक परिणामों से ऊपर उठकर अपने मानसिक पर्यावरण को किस प्रकार शुद्ध रख सकते हैं।
सन्दर्भ
1. देखें -- अभिधान राजेन्द्र कोष, खण्ड 3, पृ0 395 2. लेश्या -- अतीव चक्षुरादीपिका स्निग्ध, दीप्त, स्पा छाया -- उत्तराध्ययन बृहद् वृत्ति पत्र
650 3. देखें -- भगवती आराधना, भाग 2 (सम्पादक पं0 कैलाशचन्द्र जी शास्त्री), जैन संस्कृति
संरक्षक संघ, शोलापुर, गाथा 1901 4. श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ, खण्ड पंचम, पृ0 461 5 डॉ० शान्ता जैन, लेश्या का मनोवैज्ञानिक अध्ययन, प्रथम अध्याय 6. अभिधान राजेन्द्र, खण्ड 6, पृ0 675 7. (अ) दर्शन और चिन्तन, भाग 2, पृ0 297
(ब) अभिधान राजेन्द्र, खण्ड 6, पृ0 675 8. उत्तराध्ययन, 34/3 9. एथिकल स्टडीज, पृ0 65 10. उत्तराध्ययन, 34/21-22 11. वही, 34/21-22 12. वही, 34/25-26 13. वही, 34/27-28 14. वही, 34/29-30. 15. वही, 34/31-32 16. अंगुत्तरनिकाय, 6/3 17. वही, 6/3 18. गीता, 16/6 19. वही 16/5 20. अभिधान राजेन्द्र, खण्ड 6, Yo 687
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