Book Title: Rajvinod Mahakavyam
Author(s): Udayraj Mahakavi, Gopalnarayan Bahura
Publisher: Rajasthan Puratattvanveshan Mandir

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Page 66
________________ महमूद बेगड़ा का दोहाद का शिलालेख ३१ "नृपकुलं अखिलं यो विजित्य अधितस्थुः" मुदाफर के पुत्र महम्मद को केवल 'महीपति' लिखा है । जब तक कोई विशेष वृत्तान्त प्राप्त न हो, इस उपाधि से कोई तात्पर्य नहीं निकलता है । वास्तव में, न तो महम्मद अपने पिता का उत्तराधिकारी हुआ और न इतिहासकारों ने हो उसके विषय में कुछ अधिक लिखा है । अतः उसके लिये इस साधारण उपाधि का प्रयोग उपयुक्त ही जान पड़ता है। महम्मद के बाद अहम्मद हुआ। उसके विषय में लिखा है कि वह 'महीमण्डल' का मण्डन (भूषण) और सब धर्मों, पदार्थों और विचारों को जानने वाला और समझने वाला था। उसने अपने पराक्रम से मालवाधिपति को आक्रान्त ही नहीं किया वरन् उसके देश और धन पर भी अधिकार कर लिया। अहमद को इस प्रशस्ति को सत्यता बहुत कुछ इतिहास स प्रमाणित होती है । उसको 'मही-मण्डल-मण्डन' इसलिये कहा गया है कि वह गुजरात के पहले बड़े सुलतानों में से था, उसने अपने राज्य को दृढ़ बनाया और अहमदाबाद शहर बसाया । यह आश्चर्य की बात है कि इस लेख में उसके अन्य महान् कार्यों के साथ-साथ नगर निर्माण के विषय में कुछ नहीं उल्लेख किया गया है। यद्यपि २० वें पद्य में इस नगर का नाम प्रसंगवश आगया है। ___जैसा कि हमें मुसलमान इतिहासकारों से ज्ञात होता है अहमद मालवा के अधिपति हुशङ्गशाह की आँखों में चुभता था। सन् १४११ व १४१८ ई० में दो बार हुशङ्गशाह ने गुजरात पर आक्रमण* किये परन्तु अहमद ने दोनों ही बार उसे पीछे हटा दिया । इतना ही नहीं, १४१६१ ई० में उसने स्वयं मालवा पर चढ़ाई को और हुशङ्ग को हार कर मांडू के गढ़ में शरण लेनी पड़ी। इसके बाद १४२२ ई० में जब हुशङ्गशाह उड़ीसा पर चढ़ाई करने गया हुआ था तो अहमद ने फिर मालवा पर आक्रमण किया परन्तु माण्डू पर अधिकार करने में सफल नहीं हुआ। अहमदशाह के इन हमलों का कोई विशेष फल न निकला । उसने केवल मालवा प्रान्त को लूटा और बरबाद कर दिया परन्तु उसे अपने राज्य में न मिला सका । प्रस्तुत शिलालेख में उल्लिखित मालवा का ग्रहण करना ऐतिहासिक आधारों पर सिद्ध नहीं होता है ।। * ब्रिग्स-जि० ४, पृ० १६, १८; फरीदी पृ० १३, १५; कै० हि० इ० जि० ३, पृ० २६६-७ + ब्रिग्स-जि० ४, पृ० २१-२२; फरीदी-पृ० १६-१७ * ब्रिग्स-पृ० २२-२५; फरीदी-पृ० १८; कै० हि० इ०, जि० ३, पृ० २९६ 4. 'जग्राह तद्देशधनं च पश्चात्'-यहाँ 'तद्देशधनं' का द्वन्द्व समास करते हैं तो 'तद्देशं च धनं च' ऐसा विग्रह होता है । इससे प्रतीत होता है कि उसका देश और धन ग्रहण कर लिए । यदि उसका विग्रह 'तद्देशस्य धनं जग्राह' इस तरह किया जावे तो इसका अर्थ उसके देश का धन ग्रहण किया अर्थात् उसके देश को लूट लिया ऐसा होता है । ... विवरण के लिए देखिए-ब्रिग्स-जि० ४, पृ० १७, २६, ३० ; फरीदी-पृ० १४, १७, १६, २१; बर्ड-पृ० १८८; के० हि० इ०, जि० ३, पृ० २६६-६६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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