Book Title: Rajasthan ke Jain Shastra Bhandaronki Granth Soochi Part 4
Author(s): Kasturchand Kasliwal, Anupchand
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur
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दे दिया गया है । दूसरा शास्त्र भंडार इसी मन्दिर में बाबा दुलीचन्द द्वारा स्थापित किया गया था इस लिये इस भंडार को उन्हीं के नाम से पुकारा जाता है। दुलीचन्दजी जयपुर के मूल निवासी नहीं थे किन्तु वे महाराष्ट्र के पूना जिले के फल्टन नाम: स्थान के रहने वाले थे। वे जयपुर हस्तलिखित शास्त्रों के साथ यात्रा करते हुये आये और उन्होंने शास्त्रों की सुरक्षा की दृष्टि से जयपुर को उचित स्थान जानकर यहीं पर शास्त्र संग्रहालय स्थापित करने का निश्चय कर लिया।
___इस शास्त्र भंडार में ८५० हरतलिखित ग्रंथ हैं जो सभी दुलीचन्दजी द्वारा स्थान स्थान की यात्रा करने के पश्चात् संग्रहीत किये गये थे । इनमें से कुछ अथ स्वर्य बाबाजी द्वारा लिखे हुये हैं तथा कुछ श्रावकों द्वारा उन्हें प्रदान किये हुये हैं। ये एक जैन साधु के समान जीवन यापन करते थे । प्रथों की सुरक्षा, लेखन आदि ही उनके जीवन का एक मात्र उद्देश्य था । उन्होंने सारे भारत की तीन बार यात्रा की थी जिसका विस्तृत वर्णन जैन यात्रा दर्पण में लिखा है । वे संस्कृत एवं हिन्दी के अच्छे विद्वान थे तथा उन्होंने १५ से भी अधिक प्रथों का हिन्दी अनुवाद किया था जो सभी इस भन्डार में संग्रहीत हैं।
यह शास्त्र भंडार पूर्णतः व्यवस्थित है तथा सभी ग्रंथ अलग अलग वेष्टनों में रखे हुचे हैं। एक एक ग्रंथ तीन तीन एवं कोई कोई तो चार चार चेप्टनों में बंधा हुआ है। शास्त्रों की ऐसी सुरक्षा जयपुर के किसी भंडार में नही मिलेगी । शास्त्र भंडार में मुख्यतः संस्कृत एवं हिन्दी के ग्रंथ हैं । हिन्दी के अंध अधिकांशतः संस्कृत ग्रंथों की भाषा टीकायें हैं। वैसे तो प्रायः सभी विषयों पर यहां प्रथों की प्रतियां मिलती हैं लेकिन मुख्यतः पुराण, कथा, चरित, धर्म एवं सिद्धान्त विषय से संबंधित ग्रंथों ही का यहां अधिक संग्रह है।
भंडार में प्राप्तमीमांसात् कृति ( आः विद्यानन्दि ) की सुन्दर प्रति है। क्रियाकलाप टीका को संवत् १५३४ फी लिखी हुई प्रति इस भंडार की सबसे प्राचीन प्रति है जो मांडवगढ़ में सुल्तान गयासुद्दीन के राज्य में लिखी गई थी। तत्त्वार्थसूत्र की स्वर्णमयी प्रति दर्शनीय है । इसी तरह यहां गोम्मदसार, त्रिलोकसार आदि कितने ही प्रथों की सुन्दर सुन्दर प्रतियां हैं। ऐसी अच्छी प्रतियां कदाचित् ही दूसरे भंडारों में देखने को मिलती हैं। त्रिलोकसार की सचित्र प्रति है तथा इतनी बारीक एवं सुन्दर लिखी हुई है कि वह देखते ही बनती है । पन्नालाल चौधरी के द्वारा लिखी हुई डालूराम कृत द्वादशांग पूजा की प्रति भी ( सं० १८७६ ) दर्शनीय ग्रंथों में से है।
१६ वी शताब्दी के प्रसिद्ध हिन्दी विद्वान् पं० पन्नालालजी संघी का अधिकांश साहित्य वहां संग्रहीत है । इसी तरह भंडार के संस्थापक दुलीचन्द की भी यहां सभी रचनायें मिलती हैं । उल्लेखनीय एवं महत्वपूर्ण मथों में अल्हू कवि का प्राकृतछन्दकोष, विनयचन्द की द्विसंधान काव्य टीका, वादिचन्द्र सूरि का पवनदूत काव्य, ज्ञानार्णव पर नयविलास की संस्कृत टीका, गोम्मटसार पर सकलभूषण एवं धर्मचन्द की संस्कृत टीकाये हैं। हिन्दी रचनाओं में देवीसिंह छाबडा कृत