Book Title: Rajasthan ke Jain Shastra Bhandaronki Granth Soochi Part 4
Author(s): Kasturchand Kasliwal, Anupchand
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur
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की थी। टीका बहुत सुन्दर है । टीकाकार ने विनयचन्द्र का टीका के अन्त में निम्न प्रकार उल्लेख दिया है:
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उपशम इच मूर्त्तिः पूतकीर्त्तिः स तस्माद् । श्रजनि विनयचन्द्रः समचकोर कचन्द्रः ॥ जगद्मृतसगर्भाः शास्त्रसन्दर्भगर्भाः । शुचिचरित सहिष्णोर्यस्य धिन्वन्ति वाचः ॥
विनयचन्द्र ने कुछ समय पश्चात् आशाधर द्वारा लिखित टीका पर भी टीका लिखी थी जिसकी एक प्रति 'म' भण्डार में उपलब्ध हुई है। टोका अन्त में "इति विनयचन्द्रनरेन्द्रविरचितभूपाल' स्तोत्रसमाप्तम्" लिखा है । इस टीका की भाषा एवं शैली आशाधर के समान है ।
३० मनमोदनपंचशती
छत्त अथवा छत्रपति हिन्दी के प्रसिद्ध कवि होगये हैं। इनकी मुख्य रचनाओं में 'कृपण'जगावन चरित्र' पहिले ही प्रकाश में श्राचुका है जिसमें तुलसीदास के समकालीन कवि ब्रह्म गुलाल के जीवन चरित्र का अति सुन्दरता से वर्णन किया गया है। इनके द्वारा विरचित १०० से भी अधिक पद हमारे संग्रह में हैं। ये अवांगढ़ के निवासी थे। पं० बनवारीलालजी के शब्दों में छत्रपति एक आदर्शवादी लेखक थे जिनका धन संचय की ओर कुछ भी ध्यान न था । ये पांच आने से अधिक अपने पास नहीं रखते थे तथा एक घन्टे से अधिक के लिये वह अपनी दूकान नहीं खोलते थे ।
safar जैसवाल थे। अभी इनकी 'मनमोदनपंचशति' एक और रचना उपलब्ध हुई है। इस पंचशती को कषि ने संवत १६१६ में समाप्त किया था । कवि ने इसका निम्न प्रकार उल्लेख किया है:
वीर भये सरीर गई षट सत पन वरसहि । प्रघटो विक्रम देत तनौ संवत सर सरसहि ॥ उनि इस पोडशहि पोष प्रतिपदा उजारी । पूर्वाषांड नत्र अर्क दिन सब सुखकारी ॥ घर वृद्धि जोगति इमथ समापित करिलियो । अनुपम असेष श्रानंद घन भोगत निवसत थिर थयो ।
इसमें ५१३ पद्य हैं जिसमें सर्वया, दोहा आदि छन्दों का प्रयोग किया गया है । कवि के शब्दों में पंचशती में सभी स्फुट कवित्त है जिनमें भिन्न २ रसों का वर्णन है—
सकलसिद्धियम सिद्धि कर पंच परमगुर जेह । तिन पद पंकज को सदा प्रनम धरि मन नेह ॥ हि अधिकार प्रबंध नहि फुटकर कवित्त समस्त । जुदा जुदा रस बरनऊ स्वादो चतुर प्रशस्त |
मित्र की प्रशंसा में जो पद्य लिखे हैं उनमें से दो पद्य देखिये ।
मित्र होय जो न करें चारि बात कौं । उच्छेद तन धन धर्म मंत्र अनेक प्रकार के it दोष देखि दा पीठ पीछे होय जस गावै । कारज करत रहे सदा उपकार के |