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प्रस्तावना
प्रतिपरिचय
प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादन में कुल चार हस्तलिखित प्रतियों का पूर्णरूप से उपयोग किया है। इन प्रतियों का परिचय इस प्रकार है'जे' संज्ञक पति
जेसलमेर के किले में स्थित श्रीचिन्तामणि पार्श्वनाथ मन्दिर के तहखाने में खरतरगच्छीययुगप्रधानाचार्य श्री जिनभद्रसूरि [वि. की १५वीं सदी] द्वारा संस्थापित 'बडा ज्ञान भण्डार' के नाम से प्रसिद्ध, जैनज्ञानभण्डार की ताडपत्रीय प्रति है। ' जेसलमेरुस्थ-जैनग्रन्थभण्डार-सूचिपत्र' [प्रकाशक-जैन श्वे. कॉन्फरन्स बम्बई ] की सूची में इसका क्रमाङ्क २७१ है। इस प्रति के देखक या वाचक ने कई स्थानों पर मूल ग्रन्थ के कतिपय कठिन शब्दों पर अर्थदर्शक टिप्पणियाँ भी लिखी है। इसके कुल २६० पन्ने हैं। इसकी लम्बाई चौड़ाई २७४२ इंच है। लिपी सुन्दर और सुवाच्य है। प्रति की स्थिति अच्छी है। अन्तिम २६० वें पत्र के प्रान्त भाग में लेखक को अपूर्ण पुष्पिका भी है। जिससे लगता है कि इस प्रति का २६१ वा पत्र भी रहा होगा, जो आज अप्राप्य है । लेखक को अपूर्ण पुष्पिका इस प्रकार है
"संवत् १२२५ वर्षे पौष शुदि ५ शनी अद्येह श्रीमदणहिलपाटके समस्तराजावलीविराजितमहाराजाधिराजपरमेश्वरपरमभट्टारिक उमापतिवरलब्धप्रसाद प्रौढप्रतापनिजभुजविक्रमरणांगणविनिर्जितशाकंभरीभोपाल श्रीमत् कुमारपालदेवकल्याणविजयिराज्ये तत्पादपद्मोपजीविनि महामात्य श्रीकुमरसीहे श्रीश्रीकरणादौ समस्तमुद्राच्यापारान् परिपंथयति सति"
इस अपूर्ण पुष्पिका से इतना जाना जा सकता है कि गुर्जरेश्वर महाराजाधिराज श्री कुमारपालदेव के शासनकाल में उनके अनेक महामात्यों में से एक कुमरसीह नाम के महामात्य के शासित प्रदेश में सं. १२२५ की पौष शुक्ला पंचमी शनिवार के दिन यह प्रति लिम्वाई गई है।
जेसलमेर के ज्ञानभण्डारों को सम्पूर्ण रूप से सुरक्षित एवं सुव्यवस्थित करने का, तथा वहाँ के महत्वपूर्ण ग्रन्थों की माईक्रोफिल्म लेने का एवं अनेक ग्रन्थों की पाण्डुलिपि, पाठभेद आदि तैयार करने कराने का सारा श्रेय पूज्यपाद आगमप्रभाकर मुनिवर्य श्री पुण्यविजयजी को ही है। क्यों कि इन्हीं की सत्प्रेरणा से तथा पाटननिवासी सेठ श्री केशवलाल किलाचन्दभाई के अथक परिश्रम से जैन श्वेताम्बर कॉन्फरन्स ने इस कार्य के लिए करीब पचास हजार रुपयों के खर्च का प्रबन्ध किया था।
इस ज्ञानयज्ञ में पूज्यपाद आगमप्रभाकरजी के साथ प्रस्तुत 'पुहइचंदचरिय' के संशोधक एवं सम्पादक विद्वान् स्व. पंन्यासजी श्री रमणिकविजयजी (जो आगमप्रभाकरजी के आजीवन साथी रहे थे) भी थे। इस लम्बी अवधि में पंन्यासजी महाराज ने जो जो साहित्यिक कार्य किये थे उनमें 'पुडइचंदचरिय' की प्रस्तुत प्रति की प्रेसकॉपी भी की थी।
पु-१
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